SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्ग साहित्य में वर्णित पारिवारिक व्यवस्था का स्वरूप : ५१ है। जैन अङ्ग साहित्य ज्ञाताधर्मकथा में दोनों की तुलना मेरुदण्ड से की गई है। इन दोनों की परिवार में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। पिता परिवार का संचालक, कार्यों का संयोजक और धन-सम्पत्ति का व्यवस्थापक परिवार का सबसे वरिष्ठ सदस्य होता था। उसकी स्थिति परिवार में उस धुरी की भाँति होती थी जो परिवार के विकास एवं संवर्धन में सहायक होता है। उदाहरणार्थ- उपासकदशांगसूत्र में आनन्द के पिता की तुलना उस मेढ़ी से की गई है जिसको खलिहान के मध्य गाड़कर उससे बैलों को बाँधकर अनाज निकालने हेतु चारों ओर घुमाया जाता है। परिवार में पिता को ईश्वरतुल्य माना जाता था। पुत्र-पुत्रियाँ प्रातःकाल पिता की पाद वन्दना करती थी। वह सभी पारिवारिक सदस्यों का पालनकर्ता व पारिवारिक सम्पत्ति का स्वामी होता था। पुत्रों द्वारा माता-पिता के चिन्तित हो जाने पर देवाराधना करके उनके मनोरथ को पूर्ण करने का प्रयास किया जाता था। अङ्ग साहित्य में कुछ उद्धरण ऐसे भी हैं जो मातापिता तथा पुत्रों के परस्पर प्रेमपूर्ण सम्बन्धों को प्रस्तुत करते हैं। ज्ञाताधर्मकथा के विवरण के अनुसार-संकट के समय प्राण-रक्षा हेतु पिता के भक्षण हेतु पुत्रों ने स्वयं को भोजन के रूप में ग्रहण करने का आग्रह किया था लेकिन अन्त में पिता के निर्देशानुसार अपनी मृत भगिनी के मांस को खाकर उन सबने अपने प्राणों की रक्षा की थी। भारतीय संस्कृति में पिता की भाँति माताओं को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। जैन साहित्य के अनुसार, "माता परिवार की वह अटूट कड़ी होती थी जो परिवार के सभी सदस्यों को जोड़े रहती थी। समाज में मातायें घनिष्ठता, अपनत्व, स्नेह का प्रतीक मानी जाती थीं। " डॉ० रूडोल्फ के मतानुसार- " जिस प्रकार हिन्दू परम्परा में देवगुरु वृहस्पति विशेष पूजनीय होते हैं, उसी प्रकार मातायें भी पुत्रों व पुत्रियों द्वारा पूजनीय होती थीं। विपाकसूत्र में एक ऐसे पुत्र पुष्यनन्दी का उल्लेख मिलता है, जिसने अपनी माता की सेवा में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया था। प्रातःकाल वह अपनी माता की चरण वन्दना करता तथा रोग-ग्रस्त अवस्था में उन्हें स्नान कराकर शतपाक व सहस्त्रपाक (सौ औषधों के तथा हजार औषधों के सम्मिश्रण से बने) तेलों से शरीर की मालिश कर उन्हें पहले भोजन कराता तत्पश्चात् स्वयं भोजन ग्रहण करता था। एक उद्धरण के अनुसार- उसने अपनी माँ का वध करने वाली अपनी पत्नी का भी वध कर दिया था। इसी प्रकार साधना में लीन श्रमणोपासक चुलनीपिता अपने साधना के समय पुत्र-वध की बात सुनकर उतना दिग्भ्रमित नहीं हुआ जितना अपने माँ के वध की बात सुनकर हुआ था। यदि उपर्युक्त चरित्रों की तुलना ब्राह्मण परम्परा के साहित्य
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy