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________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ को स्वीकार करने पर समान परिणाम ही स्वीकार होता है, इसलिए यहाँ कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार की एकान्त अनिवृत्ति मानने से कपालभाव घट से विलक्षण बुद्धि का अभाव होगा और इस तरह कपालरूप की बुद्धि ही नहीं होगी क्योंकि वहाँ विशेष का अभाव है (कुछ विशेषता सम्भव नहीं होती) और वस्तु अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर एक स्वभाव है। इस तरह यदि वस्तु का स्वभाव अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर एक स्वभाव है तो कपाल से विलक्षण बुद्धि के अभाव के हेतु विशेष का भी अभाव होने से वह घटवस्तु सम्भव नहीं है।। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में आचार्य हरिभद्र के शब्दों में उपर्युक्त विवेचन को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रकार जो प्रारम्भ में पूर्वपक्षी के द्वारा आक्षेप किया गया था, 'कूटस्थनित्य रूप से पदार्थ नहीं है, एवं पर्याय से भिन्न द्रव्य असिद्ध है, इत्यादि' ये सब आक्षेप अयुक्त हैं। अत: वस्तु को नित्यानित्य स्वरूप मानना चाहिए। आचार्य का भी कथन है कि द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद प्रमाण से सिद्ध है क्योंकि वस्तु का संवेदन सबको अन्वयव्यतिरेकवत् (नित्यानित्य रूप में) ही होता है। अतः स्वसंवेदन सिद्ध बात में विरोध दर्शाना मानव की व्यसनता या बुद्धि की जड़ता मात्र को ही दर्शाता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि केवल भेद तथा केवल अभेद या एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य इन दो धर्मों को वस्तु का स्वरूप मानने के सिद्धान्त की तुलना में 'भेद तथा अभेद दोनों का साथ रहना' इस एक धर्म को वस्तु का स्वरूप मानने का सिद्धान्त कुछ विलक्षण ही है। इस प्रकार हम पाते हैं कि अन्वय एवं व्यतिरेक (स्थिरता एवं नाश) जिन्हें क्रमश: द्रव्य एवं पर्याय भी कहा जाता है अनिवार्यतः एक दूसरे के साथ रहते हुए ही वस्तु का निर्माण करते हैं तथा वस्तु में रहते हुए वे (एक विलक्षण प्रकार से) परस्पर भिन्न तथा परस्पर अभिन्न दोनों हैं। सन्दर्भ सूची १. येनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते। अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः।।- षडदर्शनसमुच्चय, आचार्य हरिभद्र, का० ५७, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, सन् १९८१, द्वितीय संस्करण, पृ० ३४७ डॉ० हुकुमचन्द भारिल्ल, तीर्थङ्कर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर, १९७४, पृ० १४३ प्रवचनसार, आचार्य कुन्दकुन्द, गा० ८७, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास, १९६४, पृ० ९८
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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