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________________ अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद : ४५ आचार्य कहते हैं कि द्रव्य पर्याय से रहित और पर्याय द्रव्य से रहित कहाँ, कब, किसने, कौन से स्वरूप से और कौन से प्रमाण से देखा है' आदि२५। यहाँ यह शंका हो सकती है कि पर्याय की निवृत्ति होने से द्रव्य की भी निवृत्ति होती है या नहीं होती है? यदि निवृत्ति हो तो वह (द्रव्य) अनित्य हुआ क्योंकि वह पर्याय के स्वरूप के समान ही निवृत्ति वाला है। यदि निवृत्ति न हो तो द्रव्य और पर्याय का भेद हो जाएगा। यहाँ द्रष्टव्य है कि पर्याय से द्रव्य भिन्न है और पर्याय की निवृत्ति से द्रव्य की निवृत्ति नहीं होती है। जिस प्रकार घोड़ा आदि से ऊँट भिन्न है उसी तरह यह भी भिन्न है। आचार्य हरिभद्र इस शंका के समाधानार्थ कहते हैं कि उपर्युक्त कथन भी अयुक्त है क्योंकि हम कथंचित् निवृत्ति को स्वीकार करते हैं। यह अनुभव सिद्ध भी है। उदाहरणार्थ- घट पर्याय की निवृत्ति होने से कपालकाल में भी कपालबुद्धि से मृत्तिका का अनुभव तो होता ही है, क्योंकि मृत्तिका की यदि एकान्त निवृत्ति होती हो तो ऊर्ध्वादि पर्याय के जैसे उसका अनुभव नहीं होगा। ऊर्ध्वादि आकार की निवृत्ति से ही भेद की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि न ऊर्ध्वादि द्वारा ही मृत्तिका का सर्वथा भेद है और न ही कपाल की मृत्तिका घट की मृत्तिका से सर्वथा भिन्न है। यदि ऐसा संभव हो तो वह मृत्तिका ही अमृत्तिका हो जाएगी। जैसे पानी मृत्तिका नहीं है और कपाल की मृत्तिका से अत्यन्त भिन्न है उसी तरह वह मृत्तिका ही अमृत्तिका हो जाएगी क्योंकि पानी से वह अविशेष है। यदि यहाँ पर यह कहा जाय कि वस्तु सजातीय और विजातीय से व्यावृत्त स्वरूप वाली है और सभी पदार्थों में (कपालादि में) प्रतिनियत एक स्वभाव वाली है, इसलिए 'मृत्स्वभाव के न घटने का दोष नहीं आता है। उदाहरणार्थ- जिस प्रकार कपालभाव, उदकादि (पानी आदि) से व्यावृत्त हो, मृत्स्वभाव है, वैसे ही घटादि से व्यावृत्त हो मृत्स्वभाव है, क्योंकि वह एकस्वभाव वाला है और एक स्वभाव से ही व्यावृत्त है। जैन मान्यता के अनुसार उपर्युक्त कथन अनुभव विरुद्ध होने से अयुक्त है। यहाँ द्रष्टव्य है कि यदि कपालभाव जिस स्वभाव से अमृत्स्वभाव से व्यावृत्त है उसी स्वभाव से मृत्स्वभाव से भी व्यावृत्त हो तो वह जिस प्रकार से अमृत्स्वभाव वाले पदार्थ (पानी) का एकान्तभिन्न अवभास में हेतु बनता है, उसी तरह मृत्स्वभाव वाले पदार्थ (कपालादि) की अपेक्षा से भी होगा। परन्तु ऐसा होता नहीं है क्योंकि मृत्स्वभाव का ही अनुभव होता है और उस स्वभाव की ही कपालरूप से परिणति हुई है। अनुभव का अपलाप नहीं हो सकता है क्योंकि 'अर्थाधिगम के बारे में सत्पुरुष अनुभव को प्रमाण मानते हैं। प्रतिनियत एक स्वभावानुभव के निबन्धन
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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