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________________ अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद : ४१ कुछ भी विशेष न उत्पन्न होने पर भी सहकारी को सहकारी कहो तो सभी पदार्थों का सहकारी मानने का प्रसङ्ग आएगा क्योंकि विशेष न होने से सब पदार्थ समान हैं। इस प्रकार सहकारी की कल्पना ही व्यर्थ है। तत्पश्चात यदि यह स्वीकार किया जाय कि स्वभावत: एक क्षण स्थिति धर्म वाला एकान्त अनित्य जाना जाता है तो ऐसा मानने पर भी वस्तु द्वारा विज्ञानादि कार्य उत्पन्न न कर सकने के कारण उसका ज्ञान होना सम्भव नहीं है। जो सर्वथा एक क्षण स्थिति धर्म वाला है, उससे विज्ञानादि उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस समय वह वस्तु ही नहीं होती। उदाहरणार्थ- जिसका धर्म क्षणमात्र स्थिति स्वभाव वाला है, अर्थापत्ति से द्वितीयादि क्षणों में उसकी अस्थिति है, ऐसा स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि यह न्याययुक्त है। अब यहाँ प्रश्न होता है कि यह स्थिति और अस्थिति परस्पर अन्य है या अनन्य है? यह समालोचित मान्यता एक बौद्ध मान्यता है। स्थिति और अस्थिति में परस्पर अन्यत्व माना जाय तो पुनः प्रश्न आता है कि सर्वथा अन्यत्व या कथंचित् अन्यत्व है? यदि सर्वथा मानें तो द्वितीयादि क्षण में भी स्थिति का प्रसङ्ग आएगा क्योंकि अन्य विधि से प्रथम क्षण में स्थिति और द्वितीय क्षण में अस्थिति इस विभिन्नत्व की व्यवस्था नहीं हो सकती है। उदाहरणार्थअव्यवहित द्वितीय क्षण में जिसकी अस्थिति होती है ऐसे भाव के एकान्तभिन्न अस्थिति से वर्तमान समयभावी की स्थिति का विरोध नहीं है। इस तरह द्वितीयादि क्षण में जो अस्थिति है उसका स्थिति से अत्यन्त भिन्न होने के कारण, स्थिति से अस्थिति का केवल अविरोध है, ऐसी भावना करनी पड़ेगी। अब यदि कथंचित् अन्यत्व मानें तो यह अनेकान्तवाद के अभीष्ट की अर्थात् नित्यानित्य पक्ष की सिद्धि होती है। तत्पश्चात् यदि स्थिति और अस्थिति में परस्पर अनन्यत्व माना जाय तो यहाँ भी पुन: यही प्रश्न आता है कि सर्वथा या कथंचित्? सर्वथा अनन्यत्व स्वीकार करें तो जिस वस्तु की प्रथम क्षण में स्थिति होगी उसी वस्तु की द्वितीयादि क्षण में अस्थिति होगी। स्थिति भावरूप है इसीलिए उससे द्वितीयादि क्षण में भी स्थिति ही है, अथवा द्वितीयादि क्षण में अस्थिति के निरूपाख्य होने के कारण वह ही प्रथम क्षण स्थिति रूप हुई। अत: प्रथम क्षण में भी (अस्थिति रूप) अभाव का प्रसङ्ग आएगा। यदि कथंचित् अनन्यत्व स्वीकार करें तो पूर्वोक्त दोष आएगा। (अर्थात् अनेकान्तवाद का स्वीकरण होगा।) इसी प्रकार द्वितीयादि क्षण अस्थिति के अभाव रूप होने के कारण प्रथम क्षण स्थिति के आधार पर (भावरूप होने के आधार पर) अन्यानन्यत्व कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं होगी।
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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