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________________ ४० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ प्रमाण के आधार पर वस्तु की नित्यानित्यता इसी प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि अनेकान्तवाद प्रवेश१३ में कहते हैं कि प्रमाण से भी वस्तु का नित्यानित्य स्वरूप ही गम्य है। उदाहरणार्थ- प्रत्यक्ष से वस्तु नित्यानित्य रूप से जानी जाती है। यदि ऐसा न मानें तो वस्तु के ज्ञान के अभाव का प्रसङ्ग उपस्थित होता है, क्योंकि अगर वस्तु को अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर, एकस्वभाव एवं सर्वथा नित्य माना जाय तो प्रश्न आता है कि वह वस्तु विज्ञान जनन स्वभाव वाली है कि अजनन स्वभाव वाली है? अर्थात् ज्ञान को उत्पन्न कर सके ऐसे स्वभाव वाली है कि न उत्पन्न कर सके ऐसे स्वभाव वाली है? यदि प्रथम पक्ष को स्वीकार करें तो सभी को सर्वत्र सर्वकाल से वह ज्ञान होना चाहिए क्योंकि वह एक स्वभाव वाली ही है, किन्तु ऐसा प्राप्त नहीं होता है क्योंकि कुछ स्थान पर किसी को कुछ बार ही उसका ज्ञान होता है। यदि कहा जाय कि देशकालादि विशेष के कारण ऐसा होता है तो वह भी उचित नहीं है क्योंकि जो सर्वथा एक स्वभाव वाला है उसको नया विशेष होने का अवकाश नहीं है। यदि अवकाश हो तो अनित्यत्व का प्रसङ्ग उपस्थित होता है। इसी तरह यदि यह कहा जाय कि ज्ञान को उत्पन्न करने में सहकारी की अपेक्षा है तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जो एकान्त नित्य है उसको किसी भी अपेक्षा का अवकाश ही नहीं है। यहाँ द्रष्टव्य है कि यदि ज्ञान उत्पन्न करने में सहकारी की अपेक्षा को स्वीकार करते हैं तो प्रश्न आता है कि सहकारी उसमें कुछ विशेष उत्पन्न करता है कि नहीं? यदि वह उत्पन्न करता है तो वह अर्थान्तरभूत है या अनर्थान्तरभूत? यदि अर्थान्तरभूत है तो वस्तु को उससे क्या प्राप्त हुआ? यदि माना जाय कि विशेष अर्थान्तरभूत वस्तु का विशेष कारक है तो अनवस्था दोष के कारण यह भी उचित नहीं है। उदाहरणार्थ- जो (मूल विशेषकृत) विशेष है वह वस्तु से भिन्न है या अभिन्न? यह प्रश्न पुन: वैसे के वैसे ही प्राप्त होता है, अत: अनवस्था दोष है। तब यदि अर्थान्तरभूत मानें तो प्रश्न आता है कि वह विद्यमान है कि अविद्यमान? यदि विद्यमान है तो कैसे करता है क्योंकि करण मानने पर अनवस्था प्रसङ्ग है। यदि अविद्यमान है तो वह अविद्यमान होने पर भी उससे अर्थान्तरभूत है यह कहना उपयुक्त नहीं है। अनर्थान्तर रूप से विशेष हुआ माना जाय तो वस्तु के अनित्य होने की आपत्ति आयेगी क्योंकि जो पदार्थ है वह ही विशेष हुआ कहलाता है, कारण वह पदार्थ से भिन्न नहीं है। इस दोष से बचने के लिए 'नहीं होता' ऐसा स्वीकार कर लिया जाय तो सहकारी ही व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि वह कुछ भी उपकार नहीं करता। यदि ऐसा कहा जाय कि 'सहकारी है' तो अति प्रसङ्ग की प्राप्ति होती है। उदाहरणार्थ
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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