SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - २०११ ही वस्तु का तात्त्विक स्वरूप तीन प्रकार का है तथा गोरस की ही दूध और दही क्रमिक पर्यायें (परिणाम) हैं। आशय यह है कि एक ही घटना 'दूध का नाश', 'दही की उत्पत्ति' और 'गोरस का ज्यों का त्यों बने रहना' इन तीन रूपों में देखी जा सकती है। इससे भी निष्कर्ष यही निकलता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, नाश तथा स्थिरता इन तीन रूपों वाली है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु विनाशी तथा अविनाशी इन दोनों रूपों वाली तथा द्रव्य एवं पर्याय इन दोनों रूपों वाली है। जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में 'द्रव्य' एक वस्तु के अविनाशी पहलू का नाम है तथा पर्याय इस वस्तु के विनाशी पहलू का। सूक्ष्म दृष्टि से देखे जाने पर चेतन जीवों तथा भौतिक परमाणुओं को ही द्रव्य कहा जाना चाहिए तथा इसमें प्रत्येक द्रव्य की क्षण-प्रतिक्षण बदलने वाली अवस्थाओं को उस द्रव्य के पर्याय। इससे इतर व्यवहार में दैनंदिन जीवन की स्थूल वस्तुओं का वर्णन भी द्रव्य पर्याय की भाषा में किया जाता है। उदाहरण के लिए जब सोने का घड़ा तोड़कर मुकुट बनाया जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ सोना द्रव्य में घड़ा पर्याय का नाश होकर मुकुट पर्याय का जन्म हो गया। इसी तरह जब दूध जमकर दही बन जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ गोरस द्रव्य में दूध पर्याय का नाश होकर दही पर्याय का जन्म हो गया। इसी तरह एक युवा व्यक्ति अपने बचपन में किये गए कार्यों पर लज्जित होता है, यद्यपि अब वह बच्चा नहीं है। ठीक ही ये कार्य किसी दूसरे युवा व्यक्ति को लज्जित नहीं करते, क्योंकि ये कार्य इस दूसरे युवाव्यक्ति के बचपन में किये गए कार्य नहीं हैं। इसी तरह एक युवाव्यक्ति अपने वृद्धावस्था के सुविधार्थ कुछ काम करता है यद्यपि वह युवा वृद्ध नहीं है और न ही कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के सुविधार्थ कुछ काम करता है। अत: यह सिद्ध हो गया कि वस्तु अन्वय आदि (अन्वय एवं व्यतिरेक, स्थिरता एवं विनाश) स्वभावों वाली है, अन्यथा इस वस्तु का अस्तित्व ही सम्भव न होगा। उपर्युक्त कथन का आशय यह है कि जब एक व्यक्ति की बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था को एक दूसरे व्यक्ति की बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था से पृथक् रूप में देखना सम्भव है तो इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बाल्यावस्था आदि के बीच, किसी न किसी अर्थ में एक ही बना रहता है। इस प्रकार अन्वय (स्थिरता) एवं व्यतिरेक (नाश) जिन्हें क्रमश: द्रव्य एवं पर्याय भी कहा जाता है अनिवार्यतः एक दूसरे के साथ रहते हैं, एक ही वस्तु-स्वरूप का निर्माण करते हैं और इस वस्तु में रहते हुए वे (एक विलक्षण प्रकार से) परस्पर भिन्न तथा परस्पर अभिन्न दोनों हैं। आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy