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________________ अनेकान्तवादप्रवेश प्रतिपादित नित्यत्वानित्यत्ववाद : ३७ द्रव्य-गुण लक्षण कार्य प्रतिष्ठित नहीं होगा अत: वस्तु को नित्यानित्य मानना उचित है। जैनदर्शन की सामान्य मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। जैसे मिट्टी के घड़े में मिट्टी सदा स्थिर रहती है, अर्थात् इस मिट्टी से किसी भी प्रकार के बर्तन का निर्माण किया जाय, प्रत्येक बर्तन में मिट्टी का अस्तित्व सदैव विद्यमान रहेगा, क्योंकि मिट्टी द्रव्य है। अतः यह समझना चहिए कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। पर्याय रूप से अनित्य होने का कारण उसका स्थिर न रहना, निरन्तर बदलते रहना है। जैस मिट्टी से घड़ा बनाते समय मिट्टी अनेक पर्यायों को धारण करती है अर्थात् घड़े में कच्चापन, मोटापन, पक्कापन, चौड़ापन, नयापन, पुरानापन आदि। ये पर्यायरूप परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। एक के नाश के पश्चात् दूसरे पर्याय की उत्पत्ति होती है। इसलिए पर्याय रूप से वस्तु या पदार्थ को अनित्य समझना चाहिए एवं द्रव्य रूप से नित्य। अत: वस्तु को नित्यानित्य स्वरूप जानना चाहिए। यह एक जैन मान्यता है कि जगत के चेतनाभाग का निर्माण अनन्तसंख्यक आत्माएँ करती हैं (जिनका सामान्य पारिभाषिक नाम जीव है)। परमाणुओं के सम्बन्ध में भी यह माना गया है कि उनके परस्पर संयोग से जगत् की भौतिक वस्तुओं का जन्म होता है जबकि 'जीव' एक दूसरे से सर्वथा पृथक् रहते हैं। अन्य उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रत्येक जीव तथा प्रत्येक परमाणु एक नित्य तत्त्व होते हुए भी प्रतिक्षण रूपान्तर धारण करता रहता है। इन्हीं सब मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए आचार्य हरिभद्र ने नित्यत्वानित्यत्व का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं, “जब सोने के घड़े को नष्ट करके मुकुट बनाया जाता है तब सोना पूर्ववत् स्थिति में बना रहता है और ऐसी अवस्था में यह एक सकारण बात है कि जिस व्यक्ति को सोने के घड़े की आवश्यकता हो वह शोक में पड़ जाय, जिसे मुकुट की आवश्यकता हो वह प्रसन्न हो जाय तथा जिसे सोने की आवश्यकता हो वह अपने मन:स्थिति को पूर्ववत् बनाए रखे। आशय यह है कि जब एक ही घटना को 'घड़े का नाश', 'मुकुट की उत्पत्ति' और 'सोने का ज्यों का त्यों बना रहना' इन तीनों में देखा जा सकता है तब यही मानना चाहिए कि जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, नाश तथा स्थिरता इन तीन रूपों वाली है। इसी प्रकार जिसने दूध पर रहने का व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही पर रहने का व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस न लेने का व्रत लिया है वह न तो दूध पीता है और न ही दही खाता है। इससे सिद्ध होता है कि एक
SR No.525077
Book TitleSramana 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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