SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शनानुसार वर्तमान में धर्मध्यान सिद्धि के प्रमाण : २९ है। यदि वह एकाग्रता शुभ रूप है तो वह प्रशस्त है तथा कल्याणकारी है, यदि वह एकाग्रता अशुभ है तो अप्रशस्त है तथा संसार को बढ़ाने वाली है। इन शुभ तथा अशुभ से परे यदि एकाग्रता शुद्ध स्वरूप है तो वह मुक्ति प्रदायिनी है। मुख्य रूप से 'आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि' (तत्त्वार्थसूत्र, ९/२८)- ये चार प्रकार के ध्यान माने गए हैं जिसमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दो तो अप्रशस्त हैं तथा धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ये दो ध्यान प्रशस्त हैं अट्टं च रुद्दसहियं दोण्णिवि झाणाणि अप्पसत्थाणि । धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णे याणि ।। (मू० आ०, ३९४) आर्तध्यान- दुःख में जो ध्यान होता है, वह आर्तध्यान है। रौद्रध्यान- क्रूरता रूप परिणाम में जो ध्यान होता है, वह रौद्रध्यान है। धर्मध्यान- जो धर्म से युक्त ध्यान है, वह धर्म ध्यान है। शुक्लध्यान- जिसका सम्बन्ध शुचि गुण से है, वह शुक्ल ध्यान है।' इनके प्रत्येक के अनेक भेद हैं किन्तु यहाँ अभी हम मात्र धर्मध्यान की चर्चा करेंगे। धर्मध्यान- ध्यान हर क्षण चलता है। किसी न किसी विषय में हर क्षण मन अटका रहने के कारण व्यक्ति को कोई न कोई ध्यान बना रहता है। यदि वह ध्यान रागद्वेष मूलक है तो मोक्ष मार्ग की दृष्टि से इस तरह के सभी ध्यान अनिष्ट हैं तथा हेय हैं। जैनेन्द्र कोशकार (भाग २/४७६)लिखते हैं कि साधक साम्यता का अभ्यास करने के लिए जिस ध्यान को ध्याता है, वह धर्मध्यान है। अभ्यास दशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण ज्ञाता-द्रष्टा भावरूप शुक्लध्यान हो जाता है। इसीलिए किसी अपेक्षा से धर्म और शुक्ल दोनों ध्यान समान हैं। धर्मध्यान दो प्रकार का है- बाह्य व आध्यात्मिक। वचन व काय पर से सर्व प्रत्यक्ष होने वाला बाह्य और मानसिक चिन्तन रूप आध्यात्मिक है। धर्मध्यान का लक्षण- भगवती आराधना में लिखा हैं कि जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वही धर्मध्यान का लक्षण है। रयणसार में कहा है कि मुमुक्षु जीवों के लिए सम्यग्ज्ञान ही धर्मध्यान है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र मानते हैं कि पुण्य रूप आशय के वश से तथा शुद्ध लेश्या के अवलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चित्तवन से उत्पन्न हुआ ध्यान प्रशस्त कहलाता है। द्रव्यसंग्रह टीका में लिखा है- 'पञ्च परमेष्ठी की भक्ति आदि तथा उनके अनुकूल शुभानुष्ठान (पूजा, दान,
SR No.525076
Book TitleSramana 2011 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy