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३० : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ अभ्युत्थान, विनय आदि) बहिरंग धर्मध्यान होता है।९ तत्त्वदेशना में आचार्य विशुद्ध सागर जी कहते हैं, 'जब संसार की सब क्रियाएँ बन्द हो जायेंगी, तब धर्म प्रारम्भ हो जाएगा।'१२ धर्मध्यान का चिह्न- धर्मध्यान की पहचान बताते हुए धवलाकार कहते हैं कि आगम, उपदेश और जिनाज्ञा के अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवान के द्वारा कहे गए पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है। जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय-दानसम्पन्नता, श्रुत, शील और संयम में रत होना, ये सब बातें धर्मध्यान में होती हैं। तत्त्वदेशना के अनुसार 'अच्छे विचार धर्म हैं। मार्ग में किसी जीव पर करुणा करना, किसी की सहायता करना धर्म है। प्राणिमात्र के प्रति समदृष्टि होना, परिणामों में निर्मलता का होना ही धर्म है। जिसे आडम्बरों में बाँधकर रखा है वह धर्म नहीं है'।१४ धर्मध्यान के भेद- तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के चार भेद कहे हैं।५(१) आज्ञा, (२) अपाय, (३) विपाक, (४) संस्थान । राजवार्तिक में 'धर्मध्यानं दशविधम्' कहकर दस भेद माने हैं।६- चारित्रसार में बाह्य तथा आध्यात्मिक के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का माना है तथा आध्यात्मिक धर्मध्यान के दश भेद माने हैं। (१) अपाय विचय, (२) उपाय विचय, (३) जीव विचय, (४) अजीव विचय, (५) विपाक विचय, (६) विराग विचय, (७) भव विचय, (८) संस्थान विचय, (९) आज्ञा विचय, (१०) हेतु विचय। तत्त्वदेशना में उपर्युक्त चार भेदों को संक्षिप्त तथा सरल भाषा में इस प्रकार समझाया गया है१. आज्ञा विचय- जैसा जिनेन्द्र देव ने कहा, वैसा ही मान लेना। यह इसी प्रकार है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नहीं होते। इस प्रकार के श्रद्धान से अर्थ की अवधारण करना आज्ञा विचय धर्मध्यान है। २. अपाय विचय- जो मिथ्यात्व में हैं, वे वहाँ से कैसे निकल सकें, इस प्रकार का चिन्तन अपाय विचय धर्म-ध्यान है। ३. विपाक विचय- यह जो हमारा उदय चल रहा है, यह हमारे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है, हम स्वयं ही इसके जिम्मेदार हैं और हमें ही सहन करना होगा। इस प्रकार कर्मों के फल का विचार करना विपाक विचय धर्म-ध्यान है।