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148 : Sramana, Vol 62, No. 1 January-March 2011
श्राविकाओं का, तृतीय अध्याय में अन्तिम दो तीर्थङ्करों की कालवर्ती श्राविकाओं का, चतुर्थ अध्याय में तीर्थङ्कर महावीर के पश्चात् तीसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक की ४१ श्राविकाओं की खारवेल एवं मथुरा के पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर धर्मप्रभावना का, पंचम अध्याय में आठवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक की उत्तर एवं दक्षिण भारतीय श्राविकाओं द्वारा कलापूर्ण मन्दिरों एवं साहित्य-संरक्षण के क्षेत्र में कृत योगदान का उल्लेख है। छठा अध्याय गदर (१८५७) के पूर्व एवं सातवाँ अध्याय गदर (१८५७) के पश्चात् की श्राविकाओं द्वारा राजनीति, स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य, शिक्षा, सल्लेखना इत्यादि के क्षेत्र में कृत योगदान का उल्लेख करता है। उपसंहार में पूर्व विवेचित तथ्यों का सार प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में सन्दर्भ ग्रन्थ सूची है। लेखन में सर्वत्र समीक्षात्मकता दृष्टिगोचर होती है। यह ग्रन्थ पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है।
___ डॉ. राहुल कुमार सिंह पूजन का वैज्ञानिक अनुशीलन, लेखक- दिगम्बर जैन मुनि उपाध्याय निर्भयसागर, सम्पादक- प्रो० सुदर्शन लाल जैन, प्रकाशक- निर्भय निर्ग्रन्थ वाणी प्रकाशन, नांगलोई, दिल्ली-४१, सन्-२००९, पृष्ठ-२५८, मूल्य- रू०५०/अजिल्द, १००/सजिल्द। मुनि उपाध्याय निर्भयसागर स्वयं एक वैज्ञानिक हैं और उन्होंने इस ग्रन्थ में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाते हुए पूज्य, पूजक, पूजा का फल, देवदर्शन, यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र एवं वास्तु-विज्ञान से सम्बन्धित सामग्री विस्तार से प्रस्तुत की है। 'पूज्य देव' को परिभाषित करते हुए कहा है कि जिसने अपने सभी कर्म-शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके ईश्वरत्व को प्राप्त कर लिया हो वही पूज्य है, अनादि देव विशेष नहीं। इस परिभाषा के अनुसार अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठी ही पूज्य देव की कोटि में आते हैं। इनके साथ ही वे भी पूज्य देव की कोटि में बतलाये गये हैं जो इस मार्ग पर आरूढ़ हैं अथवा इस लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति में निमित्त हैं। इस तरह यहाँ जैन दृष्टि से नव देव पूज्य माने गये हैं- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पंचपरमेष्ठी तथा आगमशास्त्र, धर्म, चैत्य, (मूर्ति) और चैत्यालय (मन्दिर) ये नव ही पूज्य हैं इनके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है। प्रथम पाँच अध्यायों में इन नव देवताओं का वर्णन है और षष्ठ अध्याय में भक्त और भक्ति का विवेचन है। सप्तम अध्याय में पूजन और अभिषेक की विधि और पूजा का फल बतलाया गया है। अष्टम अध्याय में जिन देव दर्शन की विधि तथा उससे