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________________ 140 : Sramana, Vol 62, No. 1 January-March 2011 ऐतिहासिकता सिद्ध हो चुकी है। तीर्थंकर महावीर के शिष्य गौतम, सुधर्मा आदि गणधरों ने १२ आगमों की रचना की पश्चात् उपांग आदि आगम परवर्ती ऋषियों ने लिखे जो आज इस धर्म के मल स्रोत हैं। वेदों में हमें वातरशना मनि और केशी आदि के जो वर्णन मिलते हैं वे स्पष्टतः जैनमुनियों की ओर संकेत करते हैं, जैसे"ककर्दवे वभाभो युक्त आसीद, अवावचीत् सारथिरस्य केशी। दुर्धयुक्तस्य द्रवतः सहानस, ऋच्छन्ति मा नि पदो मुद्गलानीम्।।" तात्पर्य यह है कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगी ज्ञानी नेता केशी वृभष के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गईं। ऋग्वेद में जिन यतियों का उल्लेख आया है वे सम्भवतः जैनयति थे। प्राकृत-संस्कृत भाषाओं में विविध-विषयक विपुल साहित्य भाषा की दृष्टि से जैनागमों की भाषा जनभाषा प्राकृत थी। वैदिकों ने संस्कृत को 'दैवी वाक्' मानकर उसी भाषा में रचना की। इसका एक अच्छा परिणाम यह रहा कि प्राचीनतम् वेदों की रक्षा भली प्रकार हुई परन्तु तत्कालीन विविध लोकभाषाओं का प्रतिनिधित्व नहीं बन सका। भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस कमी को पूरा करते हुए लोक भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। भगवान् बुद्ध की भाषा को बाद में 'पालि' के नाम से व्यवस्थित किया गया। महावीर के उपदेशों को उनके गणधरों ने अर्धमागधी में उपनिबद्ध किया जो १८ भाषाओं का सम्मिश्रण था। कालान्तर में शौरसेनी भाषा में दिगम्बरों के परवर्ती आगमों की रचना हुई। पश्चात् संस्कृत तथा अन्य लोक भाषाओं में विपुल साहित्य लिखा गया। यह साहित्य हमें काव्य, दर्शन, वाद्य, संगीत, आयुर्वेद, मंत्र-तंत्र, विधि-विधान, ज्योतिष, पूजा-पाठ, योग, खगोल, गणित, आदि विविध विषयों में उपलब्ध हैं। इस साहित्य के अतिरिक्त हमें लोक-कलाओं से सम्बन्धित स्थापत्यकला, स्तूप, गुफा, मंदिर, शिलालेख आदिसे सम्बन्धित विपुल सामग्री प्राप्त होती है जिसके द्वारा जैनधर्म दर्शन के सिद्धान्तों को रूपायित किया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि जैन धर्म केवल निवृत्ति-प्रधान नहीं है अपितु लौकिक जीवन से बहुत अधिक सम्बन्ध रखता है। इसी तरह इसमें समाजोपयोगी विपुल साहित्य तथा समन्वय की प्रवृत्ति उपलब्ध है। अत: जहाँ साधुचर्या को प्रमुखता से रूपायित किया गया है वहीं गृहस्थाचार को भी प्रमुखता दी है। गृहस्थाचार को तो उत्तराध्ययनसूत्र में घोराश्रम की संज्ञा दी गयी है क्योंकि इस पर चारों आश्रमों का उत्तरदायित्व होता है। मूलस्रोत के रूप में आगम ग्रंथ, परवर्ती आगमाश्रित साहित्य तथा पुरातात्विक साक्ष्य हैं। -प्रो० सुदर्शन लाल जैन
SR No.525075
Book TitleSramana 2011 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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