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अंक ४
श्रमण, वर्ष ६१, अक्टूबर-दिसम्बर - २०१०
आचार्य हेमचन्द्र काव्यशास्त्रीय परम्परा में अभिनवगुप्त के प्रतिकल्प
प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी *
[ विद्वान् लेखक द्वारा १९ फरवरी २००८ को विश्वविद्यालय पाटन में प्रो. नन्दी द्वारा सम्पादित "काव्यानुशासन" के प्रकाशन के अवसर पर उत्तर गुजरात में हेमचन्द्राचार्य विषय पर दिए गये व्याख्यान का यह लेखबद्ध रूप है। लेखक ने संस्कृत काव्य साहित्य विज्ञ अभिनवगुप्त से तुलना करके आचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बताया है। प्रसङ्गवश अन्य काव्य- शास्त्रियों की समीक्षा करते हुए तथा अपने मत को प्रस्तुत करते हुए हेमचन्द्राचार्य के स्वतन्त्र- चिन्तन को सराहा है । ]
संस्कृत काव्यशास्त्र में जो स्थान आचार्य अभिनवगुप्त का है लगभग वही अथवा उससे बड़ा स्थान आचार्य हेमचन्द्र का ठहरता है। आचार्य अभिनवगुप्त आजीवन तपोरत रहे। वे कश्मीर के शैव पीठ के महामहेश्वराचार्य भी थे। हेमचन्द्र को अभिनव गुप्त के बाद के आचार्यों को अनुपलब्ध ग्रन्थ भी उपलब्ध थे। किन्तु उनका साहित्यिक योगदान साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में केवल बोलकर लिखाई गयी दो टीकाओं तक सीमित है, जबकि आचार्य हेमचन्द्र का लेखकीय योगदान चतुरस्त्र और साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में भी स्पृहणीय ही नहीं, अद्वितीय है। उन्होंने काव्यानुशासन नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ तो दिया ही, उस पर स्वयं विवेक नामक विस्तृत विवरण भी दिया, जिसकी सामग्री ऐतिहासिक भी है और उपादेय भी । उन्होंने ग्रन्थ - लेखन में भी प्राचीन पद्धति को पुनर्जागरण दिया और साहित्यशास्त्र को महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी पद्धति प्रदान की। यह पद्धति सुगम भी थी और प्रचलित भी । काव्यानुशासन में उन्होंने अनुच्छेदों को अध्याय नाम दिए । साहित्यशास्त्र के सभी विषयों का नवीन समायोजन भी किया और उसमें काव्यप्रकाश जैसी ढील नहीं आने दी। काव्यप्रकाश का तृतीय उल्लास उसी प्रकार द्वितीय उल्लास में जोड़ा जा सकता था जिस प्रकार नवम उल्लास दशम में और पूरा काव्यप्रकाश केवल आठ उल्लासों में रखा जा सकता था। चाहते तो मम्मट भी अपने काव्यप्रकाश
* प्रोफेसर इमेरीट्स संस्कृत साहित्य, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।