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________________ ४० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर-१० ही है। जिस प्रकार दाहकता अग्नि का धर्म है तथा गंध पृथ्वी का विशेष धर्म है वैसे ही कुछ विशेषताओं को धारण कर व्यक्ति मानव कहलाता है। अथर्ववेद में सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म, यज्ञ आदि को धर्मतत्त्व बतलाया गया है। वस्तुतः धर्मतत्त्व मानव-समाज एवं सृष्टि का नियामक है। धर्म का स्वरूप परिवर्तनशील रहा है। वैदिक धर्म यज्ञ-प्रधान था। किन्तु उपनिषत्काल में धर्म का यज्ञ से विशिष्ट सम्बन्ध क्रमशः समाप्त होने लगा और यज्ञ की अपेक्षा नैतिक गुणों पर अधिक बल दिया जाने लगा। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार धर्म तीन प्रकार का माना गया है - १. गृहस्थधर्म- जिसमें यज्ञ, अध्ययन एवं दान कार्य होते हैं। २. तप-धर्म- जिसमें व्रत, नियम आदि का पालन किया जाता है। ३. नैष्ठिक ब्रह्मचर्य धर्म- जिसमें ब्रह्मचारी सदैव ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अन्त तक आचार्य कुल में रहे। धर्म की विशद व्याख्या स्मृति-शास्त्रों में बतायी गयी है। महाभारत के अनुसार त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का सार धर्म ही है।५ "धर्म" प्राणिमात्र को धारण करने वाला है। जैनों के अनुसार वस्तु-स्वभाव धर्म है। किन्तु आचार-धर्म का बोध जैन-धर्म का प्रतिपाद्य है एवं वस्तु-धर्म का बोध जैनदर्शन का विषय है। अन्य धर्मों एवं दर्शनों में भी इन विषयों का विशद विवेचन हुआ है। प्रत्येक दर्शन से तत्तद् आचार धर्म अनुप्राणित होता है। जैन-दर्शन में चिंतन का जो नवनीत निकला उसे धर्म के विराट् फलक पर प्रस्तुत करने का जैन-कवियों का प्रयास सराहनीय है। उन्होंने मनुष्यों के लौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों को समन्वित कर धर्म का स्वरूप निर्धारित किया है। लौकिक अभ्युदय एवं पारलौकिक निःश्रेयस् दोनों सम्मिलित रूप में धर्म कहलाता है - यतोऽभ्युदयनि:श्रेयस्सिद्धिः स धर्मः। धर्म अन्तर्दृष्टि विशुद्ध आन्तरिक चेतना से अनुप्राणित होती है। भक्ति, कर्म, ज्ञान, साधना, अनुशासन आदि गुण धर्म का क्रियान्वयन है। धर्मानुष्ठानी दूसरों के मनोगत भावों का पारखी होता है। वह दूसरों के हृदयगत भावों को उसकी आकृति एवं चेष्टाओं से सहज जान लेता है। इसे एक दृष्टांत द्वारा सहज ही समझा जा सकता है। भरत द्वारा प्रेषित दूत को देखकर ही बाहुबली सब कुछ जान गये। फिर भी उन्होंने अपने बड़े भाई भरत के प्रति पूर्ण श्रद्धा भाव से उस दूत से आने का कारण पूछा। उसने भरत की महिमा का विस्तार से वर्णन करके उनके चक्र के शस्त्रागार में प्रविष्ट न होने का
SR No.525074
Book TitleSramana 2010 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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