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________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर-२०१० पुण्यकुशलगणि विरचित भरतबाहुबलिमहाकाव्य में जैनधर्म एवं दर्शन डॉ० मधुबाला जैन [ डॉ. मधुबाला जैन ने इस आलेख में भरत-बाहुबलि महाकाव्य के माध्यम से जैनधर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इसके काव्य-वैशिष्टय को नहीं बतलाया है। आशा है, आगे इसके काव्य-वैशिष्टय को भी निरूपित करेंगी। ] श्रमण-संस्कृति के अनन्य उपासक पुण्यकुशलगणि का एकमात्र महाकाव्य “भरतबाहुबलिमहाकाव्य" जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित है। इस महाकाव्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आचार्य पुण्यकुशलगणि ने समाज में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने हेतु इस महाकाव्य की रचना की है। उनका यह महाकाव्य वाक्य-विन्यास, पद-गरिमा, काव्य-सौष्ठव आदि काव्योचित सभी गुणों से युक्त है। पुण्यकुशलगणि ने अध्यात्म-प्रधान श्रमण-संस्कृति को अपनाकर समाज को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। उन्होंने जैन धर्म एवं दर्शन के स्वरूप को नये आयाम प्रदान किये हैं। धर्म-ध्यान एवं शुक्लध्यान को अपनाकर उन्होंने कर्म-काण्ड आदि बाह्य आडम्बरों को छोड़ने का सन्देश दिया है। वे जन-जन के चित्त को अपनी ओर आकृष्ट कर लेने वाले थे। सार्थकनामा वे पुण्य-कार्यों में ही जीवन की सार्थकता समझते थे। उन्होंने अपनी काव्यप्रतिभा से रसाढ्य, रम्यपदालंकार-युक्त, हृद्य एवं मुक्तिपथ को दर्शाने वाले महाकाव्य की रचना कर संस्कृत-साहित्य के भण्डार को अपूर्व योगदान किया है। धर्म का उदय मानव की आध्यात्मिक रुचि का प्रतिफलन है। 'धर्म' शब्द ऋग्वेद में धारण करने के अर्थ में आया है। महाभारत में भी 'धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मों धारयते प्रजाः' इस कथन द्वारा धर्म का धारण अर्थ ही लिया गया है। महाभारतकार के अनुसार न केवल मानव-समाज ही धर्म की आधारशिला पर टिका हुआ है अपितु सम्पूर्ण जगत् की प्रतिष्ठा भी धर्म में * अतिथि प्राध्यापक, राजकीय महाविद्यालय, नाथद्धारा १०७,गोविन्द नगर, सेक्टर १३, उदयपुर, राजस्थान।
SR No.525074
Book TitleSramana 2010 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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