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१८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर - १०
हैं। वे रस का अस्तित्व रसिक में मानते हैं जो काव्य नहीं काव्य का भावक होता है। जिस काव्य में रसिक को रस मिलता है उसमें वह रसाभिव्यञ्जक सामग्री का अस्तित्व स्वीकार करता है, किन्तु उसे काव्य की असाधारणता नहीं कह पाता । भोजराज उसे रसोक्ति वर्ग का असाधारण धर्म और रसोक्ति नामक अलंकार घोषित करने में तनिक नहीं हिचकते । भोजराज अभिनवगुप्त के कनिष्ठ समकालीन आचार्य हैं। ध्वनिवादी जिन आचार्यों ने भाविक और उदात्त जैसे उक्तिधर्मों को अलंकार मान लिया वे रसाभिव्यञ्जिका सामग्री को भी काव्यालङ्कार कह सकते थे। इस प्रकार ध्वनिवाद में रस, काव्य से असंबद्ध ही रहा है।
हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत और अपभ्रंश पर भी ग्रन्थ लिखे और उनके कोष दिए। किन्तु संस्कृत पर भी उनका असाधारण अधिकार था और उन्होंने संस्कृत के व्याकरण में भी परिष्कार किया, जिनको आधार बनाकर शताब्दियों पूर्व जैन साधुओं ने शब्दरूप और धातुरूप पर ग्रन्थ लिखे जिनमें केवल प्रक्रियामात्र भिन्न है, परिणति एक और अभिन्न है। उनका कविकर्म भी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् जैसे विशालकाय महाकाव्य से प्रमाणित है। आनन्दवर्धन ने भी कोई अर्जुनचरितमहाकाव्य लिखा था, किन्तु वह उतना प्रसिद्ध नहीं हुआ जितना हेमचन्द्राचार्य का काव्य । अभिनवगुप्त भी कविकर्म में अपने स्वर्णयुग का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं, तथापि उनकी कोई स्वतन्त्र काव्यकृति प्रकाश में आई नहीं। अभिनवभारती में जो उन्होंने अपने उदाहरण दिए हैं वे उनकी प्रौढ़, कवित्वशक्ति में प्रमाण है । मम्मट को तो कविकर्म ने मानो छोड़ ही रखा है। इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य कविकर्म में भी किसी ध्वनिवादी से पीछे नहीं हैं।
महामहिम काणे के अनुसार हेमचन्द्राचार्य का दूसरा नाम चंगदेव था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त चांगदेव से अभिन्न थे। यह भी कहा जाता है कि हेमचन्द्राचार्य को भगवती पद्मावती सिद्ध थी अथवा उन्हें पद्मावती देवी से विशेष सुविधा प्राप्त थी। उन्हें जिस ग्रन्थ की आवश्यकता होती माता पद्मावती सुलभ करा देती थीं। ये सभी आख्यायिकाएँ हेमचन्द्राचार्य की अद्भुतता की प्रमाण हैं ।
सन्दर्भ
१. काव्यानुशासन, आचार्य हेमचन्द्र १.३ वृत्ति, सं. तपस्वी नन्दी, प्र. हेमचन्द्राचार्य नार्थ गुजरात, यूनिवर्सिटी, पृ. ३ ( नन्दीसंस्करण)