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________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून-१० अहिंसा संभव नहीं है, फिर भी हमारे जीवन का ध्येय-वाक्य 'कम से कम हिंसा बेहतर जीवन है होना चाहिए। संघर्ष नहीं, अपितु सहयोग जीवन का नियम है। मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता है, इसलिए मुझे भी दूसरों के जीवन में सहयोगी बनना चाहिए। इससे भी आगे, हमें इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि जैनधर्म में अहिंसा केवल एक नकारात्मक अवधारणा नहीं है, अर्थात् 'किसी को मत मारो', परन्तु इसका सकारात्मक पक्ष भी है, अर्थात् 'मानवजाति का कल्याण।' एक बार श्रमण भगवान् महावीर से पूछा गया-'हे भगवन्! एक व्यक्ति जरूरतमंदों को अपनी सेवाएं दे रहा है और दूसरा आपकी पूजा-अर्चना कर रहा है, इन दोनों में कौन आपका सच्चा अनुयायी है?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'वह, जो जरूरतमंदों को अपनी सेवाएं दे रहा है, मेरा सच्चा अनुयायी है, क्योंकि वह मेरे द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण कर रहा है।"१९ विश्व के लगभग सभी धर्मों में अहिंसा की अवधारणा और जीवन के प्रति सम्मान-भाव को स्वीकार किया गया है, परन्तु जैन धर्म में इस पर बहुत ही सूक्ष्मता से ध्यान दिया गया है। जैन धर्म में मनुष्य एवं पशु-जीवन को मारना ही प्रतिबन्धित नहीं है, अपितु वनस्पति-जगत् के प्रति भी यही प्रतिबन्ध-व्यवस्था प्रतिपादित है। पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाना, कुओं को सुखाना, जल और वायु को प्रदूषित करना भी हिंसक कृत्य माने गए हैं, क्योंकि इनसे पर्यावरण-सन्तुलन बिगड़ता है। जैन धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है- जीवन चाहे किसी भी रूप में हो, उसका सम्मान होना चाहिए। हमें किसी का जीवन लेने, अर्थात् किसी को मारने का कोई अधिकार नहीं है। श्वेट्जर कहते हैं-'जीवन को सम्पोषित करना या उसका सहयोग करना या उसे आगे बढ़ाना पुण्य है और उसे नुकसान पहुँचाना या नष्ट करना या उसके मार्ग में बाधा उपस्थित करना पाप है।' वे आगे कहते हैं-'एक दिन ऐसा हो सकता है, जब जीवन के सभी रूपों का सम्मान करने की जरूरत सार्वभौमिक रूप से स्वीकार की जाएगी।"२० दशवैकालिक सूत्र में उल्लिखित है-'जिस प्रकार से हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार से हर प्राणी जीना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता। इस सामान्य तर्क के आधार पर निर्ग्रन्थ हिंसा को प्रतिबन्धित करते हैं।"२१ यहां यह कहा जा सकता है कि जैनों की अहिंसा की अवधारणा अतिरंजित या अतिवादी या अव्यावहारिक है, परन्तु मानव-समाज के सन्दर्भ में हम इसे चुनौती नहीं दे सकते हैं। यद्यपि जैनधर्म में पूर्ण अहिंसा (आभ्यन्तरिक एवं बाह्य दोनों) का आदर्श लक्ष्य नियत किया गया है, परन्तु
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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