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________________ जैन धर्म में शांति की अवधारणा : ४९ है। इस बाह्य-शान्ति या सामाजिक-शान्ति को भी नकारात्मक और सकारात्मक दोनों रूप में परिभाषित किया जा सकता है। नकारात्मक रूप में यह युद्ध और शत्रुता की समाप्ति की स्थिति है। यह विभिन्न व्यक्तियों, सामाजिक-समुदायों और राष्ट्रों के पारस्परिक-सहिष्णुतापूर्वक रहने की स्थिति है। यह पारस्परिक सहयोग और सहअस्तित्व की स्थिति है, परन्तु हमें इस तथ्य के प्रति भी सजग होना चाहिए कि वास्तविक बाह्य-शान्ति अयुद्ध की स्थिति के अतिरिक्त कुछ और भी है। यह सजीव शान्ति है। यह पारस्परिक-संदेह और भय से मुक्ति की स्थिति है। जब तक एक-दूसरे के प्रति संदेह और आशंकाएं विद्यमान हैं, वास्तविक युद्ध की अनुपस्थिति के बावजूद यह शान्ति की स्थिति नहीं है, क्योंकि जहाँ भय है, वहाँ युद्ध की संभावना बनी रहती है। आधुनिक-विश्व में इसे शीतयुद्ध के रूप में जाना जाता है। युद्ध, युद्ध है; फिर चाहे वह वास्तविक हो या शीत, वह सामाजिक-शान्ति को प्रभावित करता है। वास्तविक सामाजिक-शान्ति तभी संभव है, जब हमारे मन, भय और आशंकाओं से मुक्त हों और प्रत्येक व्यक्ति न केवल 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त में, अपितु 'दूसरों के लिए जीना' की उक्ति को जीवन का आदर्श या ध्येय-वाक्य मानने में विश्वास करता हो। जैन-दार्शनिक आचार्य उमास्वाति के अनुसार 'प्राणीजगत् स्वभावतः एकदूसरे के लिए बना हुआ है।' (परस्परोपग्रहो जीवानाम्) यदि हमारा मन भय और आशंकाओं से ग्रसित है तथा हम अपनी पाशविक-वृत्तियों पर नियंत्रण नहीं करते हैं और पारस्परिक-सहयोग एवं सहअस्तित्व के जीवन मूल्यों में दृढ़ विश्वास . नहीं करते हैं, तो इस धरा पर, वास्तविक रूप में सामाजिक-शान्ति स्थापित होना सम्भव नहीं है। वास्तविक रूप में, शान्ति केवल तभी प्रकट होती है, जब प्राणी जगत् के प्रति हमारा हृदय सार्वभौमिक प्रेम से परिपूर्ण होता है। यह राग-भाव से कुछ हटकर स्थिति है। जैनाचार्यों के अनुसार राग सदैव द्वेष से जुड़ा है, परन्तु सार्वभौमिक-प्रेम ‘सभी प्राणियों की समानता की अवधारणा' और 'प्राणीजगत् स्वभावतः एक-दूसरे के लिए बने हैं के सिद्धान्त पर आधारित है। हमें इस तथ्य के प्रति भी सजग होना चाहिए कि सामाजिक-शान्ति व्यक्तियों की मानसिकशान्ति पर आधारित है, क्योंकि हमारा आचरण, हमारी इच्छाओं तथा जीवन के प्रति हमारे नजरिए की ही अभिव्यक्ति है। इस प्रकार शान्ति के विविध पहलू पृथक्-पृथक् न होकर पारस्परिक-रूप में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। सामाजिकशान्ति या बाह्य-शान्ति तभी प्रभावित होती है, जब व्यक्ति की मानसिक-शान्ति
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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