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________________ जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप : २७ वसे गुरुकुले निच्चं जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्भुमरिहई ।।१८ अर्थात् जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और तपस्वी होता है, मृदुल होता है तथा मधुर बोलता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी ग्रन्थ में बताया गया है कि शिक्षाशील कैसा हो- १. हँसी-मजाक नहीं करना, २. इन्द्रिय और मन पर सदा नियंत्रण रखना, ३. किसी का मर्म (रहस्य) प्रकट नहीं करना, ४. शील-रहित (आचार-विहीन) नहीं होना, ५. दोषों से कलुषित नहीं होना, ६. अति रस-लोलुप नहीं होना, ७. क्रोध नहीं करना एवं ८. सत्य में रत रहना।९ । जैन आगमों में शिक्षार्थी के लिए विनय, अनुशासन एवं प्रामाणिक जीवन पर बल दिया गया है। इन्हीं गुणों से व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ बनता है। उपदेशमाला में कहा है विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ दिप्पमुक्कक्स, कओ धम्मो को तवो?।।२० . अर्थात् विनय जिन-शासन का मूल है। संयम और तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स वा । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ ।।२१ अर्थात् अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति-ये दो बातें जिसने जान ली हैं, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी सूत्र में यह भी कहा गया एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ ।।२२ अर्थात् इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अंतिम लक्ष्य है। विनय के द्वारा ही मनुष्य जल्दी शास्त्र-ज्ञान एवं कीर्ति का संपादन करता है। अंत में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार आगम में विवेक-सम्मत आचार पर जोर दिया गया है। शिक्षार्थी प्रत्येक कार्य विवेकपूर्ण करे। कहा है चरदि जंद जदि णिच्चं, कमलं व चले णिरुवलेवो ।२३ अर्थात् यदि साधक (शिक्षार्थी) प्रत्येक कार्य यतना (विवेक) से करता
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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