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________________ ६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून १० शुभ भाव में परिणित हो जाते हैं। लाल, पीला और सफेद - ये रंग भाव शुद्धि के कारण हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ के शब्दों में- रंग रोग निवारण का साधन है, क्योंकि यह शरीर के असंतुलन को ठीक करता है। रंग शरीर का स्वाभाविक भोजन है जो वनस्पति जगत् से प्राप्त होता है। वह सघन अवस्था में रंग ही है। अलग-अलग रंगों का अलग-अलग प्रभाव होता है जिसकी परिणति भावात्मक एवं मानसिक स्वास्थ्य है। लाल रंग के ध्यान से तेजो लेश्या के स्पंदन जागते हैं, जिससे मन की दुर्बलता समाप्त होती है, सहनशीलता का विकास होता है । पीले रंग के ध्यान से मन की प्रसन्नता, बौद्धिक विकास, प्रज्ञा का विकास तथा मस्तिष्क और नाड़ी तंत्र सुदृढ़ बनता है। श्वेत रंग के ध्यान से उत्तेजना, आवेग, आवेश, चिंता, तनाव, वासना, क्रोध आदि शांत होते हैं । १६ 1 आचार्यश्री महाप्रज्ञ का कहना है- अधिक आहार से मल संचित होता है। नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता और मन भी निर्मल नहीं रहता । ज्ञान और क्रिया दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम नाड़ी संस्थान है। नाड़ी संस्थान के कार्य में कोई अवरोध न हो, मन की निर्मलता बनी रहे, अपान वायु दूषित न हो, इन्हीं तथ्यों के आधार पर उपवास, मितभोजन, रस- परित्याग आदि मार्ग सुझाए गये हैं। निर्जरा के ये प्रथम चार भेद आहार-शुद्धि से जुड़े हुए हैं। " आचार्यश्री महाप्रज्ञ लिखते हैं- जब हम आसन लगाते हैं तब हमारे चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं। ये केन्द्र या चक्र मूलतः कर्म - शरीर में हैं। वहाँ से वे प्राण शरीर से स्थूल शरीर प्रतिबिम्बित होते हैं। आसन के द्वारा शरीर में सक्रियता पैदा कर देने पर उसका प्रभाव प्राण शरीर और कर्म शरीर तक पहुँचता है, जिससे चक्रस्थान या चैतन्य केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं और अपना संकुचन छोड़कर जागृत हो जाते हैं । १८ आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने एक शब्द में साधना का उद्देश्य बताते हुए लिखा है-“निज्जरट्ठाए” साधना का उत्कृष्ट लक्ष्य निर्जरा है । यह अमूर्त की भाषा है। यदि इसे मूर्त की भाषा में कहें तो - साधना 'स्वास्थ्य एवं शक्ति विकास के लिए ' है । १९ ज्योतिकेन्द्र और शांति - केन्द्र पर ध्यान करने से स्वास्थ्य का विकास होता है। आनन्द केन्द्र पर ध्यान करने से सुख का विकास होता है। दर्शन केन्द्र पर ध्यान करने से ज्ञान का विकास होता है। स्वास्थ्य केन्द्र या शक्ति केन्द्र पर ध्यान करने से शक्ति का विकास होता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने प्रयोग सुझायाकायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठकर मन को शांत कर अनुभव के स्तर पर देखें- मैं क्रोध नहीं हूँ, मेरी चेतना क्रोध नहीं है, प्राण की धारा उसके साथ जुड़ रही है और मैं क्रोध बन रहा हूँ। विवेक कहता है कि मैं प्राण की धारा के साथ
SR No.525072
Book TitleSramana 2010 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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