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११८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक २ / अप्रैल-जून १०
साहित्य सत्कार
पुस्तक समीक्षा
योगशास्त्र - लेखक हेमचन्द्र, हिन्दी अनु. - पद्मसूरि, सम्पादक - मुनिश्री जयानन्द विजयजी, प्रकाशक श्री गुरुरामचन्द्र प्रकाशन समिति, भीनमाल (राज.)
प्रस्तुत कृति कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य की स्वरचित कृति है । यद्यपि जैन योग पर अब तक अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है तथापि अपनी स्वोपज्ञ व्याख्या तथा सरल हिन्दी अनुवाद की दृष्टि से यह ग्रन्थ अपने आप में महत्त्वपूर्ण कृति है। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों की समवेत साधना से ही मुक्ति मानी गयी है। आचार्य श्रीहेमचन्द्र ने 'अभिधान चिन्तामणिकोश' में कहा है “मोक्षोपाय - योगो ज्ञानश्रद्धानचरणात्मकः अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये तीनों ही मोक्ष के उपाय हैं। योगशास्त्र मुख्यतः इन्हीं तीनों से सम्बन्धित है।
जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय दर्शन अथवा धर्म में वर्णित योगशास्त्र में योग को यम, नियमादि आठ अंगों में विभाजित कर उन्हें चित्तवृत्ति निरोध से लेकर सर्वभूमिकाओं तक की परिधि में बाँध दिया गया है किन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने न केवल मुनि अपितु गृहस्थ तथा अन्य जनों को भी उच्च आध्यात्मिक स्तर तक पहुँचाने के लिये यौगिक अंगों को प्रतिपादित करते हुए भी सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन तीनों को परमात्म स्वरूप प्राप्त करने का साधन माना है। उन्होंने सरलता से ग्राह्यता की दृष्टि से सम्बन्धित विषय से जुड़े अनेक रोचक तथ्यों का भी प्रयोग किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के आरम्भ में ही योग का माहात्म्य, उसकी गरिमा, साधना के फल और चमत्कारों का इतना सजीव वर्णन है कि हर जिज्ञासु साधक योग-साधना के लिए आकर्षित होकर अपने जीवन को उसी में ढाल लेने के लिए प्रयत्नशील हो सकता है।
योगशास्त्र में कुल १२ प्रकाश के अन्तर्गत १०१२ श्लोक हैं। पहले से तीसरे प्रकाश में योग के यम व नियम की जैन दृष्टि से विवेचना की गयी है। कहींकहीं तुलनात्मक रूप से अन्य दर्शनों के साथ उसकी तुलना भी परिलक्षित होती है। चौथे प्रकाश में क्रमशः कषाय- विजय, चित्त वृत्ति, चित्त शुद्धि, इन्द्रिय निग्रह, समत्व ध्यान, अनुप्रेक्षा, मैत्री आदि भावनाओं एवं उनके आसनों की विशद् विवेचना की गयी है। पाँचवें प्रकाश के अन्तर्गत प्राणायाम और उसकी भूमियों आदि का वर्णन है। छठे प्रकाश में प्रत्याहार, धारणा, सातवें प्रकाश में ध्यान, आठवें प्रकाश में पदस्थ, नवमें प्रकाश में रूपस्थ, तथा दसवें प्रकाश में रूपातीत ध्यान का वर्णन तथा अन्तिम दो प्रकाशों- ग्यारहवें व बारहवें में धर्मध्यान, शुक्लध्यान, निर्विकल्प समाधि आदि की विस्तृत विवेचना जैन दृष्टि से की गयी है । निश्चय ही पद्मसूरिजी द्वारा अनुवादित यह पुस्तक रोचक और अनेक प्रश्नों का समाधान करने वाली है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रण त्रुटिरहित है। यह पुस्तक शोधार्थियों एवं पुस्तकालयों के लिये पठनीय एवं संग्रहणीय है। - डॉ. शारदा सिंह, शोधाधिकारी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ