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________________ २ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च - १० अन्तरात्मा ने कितनी ही बार मुझसे पूछा है-'तूने यह सब क्या किया? सिद्धान्तहीन समझौता कैसे कर गया तू?' क्या उत्तर दूँ मैं? बस, यही कि संगठन की धुन सवार थी मन-मस्तिष्क पर । जैसे भी हो, संगठन बना रहे, यही एकमात्र व्यामोह था उन दिनों । यदि वह संगठन बना रहता, तब भी मन को कुछ सन्तोष तो रहता। पर, वह भी कहाँ रहा? देर-सबेर एक-एक कर के साथी बिछड़ते और बिखरते गए और संगठन केवल संगठन के नाम पर जिन्दा रहा। अब भी, वह इसी नारे के बल पर जिन्दा है। कितनी बड़ी विचार दरिद्रता ? मैं विचार करता हूँ- यह सब क्या है, क्यों है? कितना लम्बा समय गुजर गया। हम नौजवान से बूढ़े हो गए, और बूढ़े परलोकवासी हो गए। गंगा का अरबों टन पानी बहकर सागर में पहुँच गया । विश्व की राजनीतिक स्थितियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गईं, और हम हैं कि जहाँ के तहाँ खड़े हैं। जहाँ के तहाँ भी नहीं, कुछ पीछे ही लौटे हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि हम कुछ विचार दरिद्र हैं, अच्छी तरह सिद्धान्त और स्थिति का जायजा नहीं ले सकते ! खुले मन मस्तिष्क से सोचने-समझने के हम आदी नहीं हैं। यदि कोई स्पष्ट विचार उपस्थित करता भी है तो हम उसे सुनने तक को तैयार नहीं हैं। हमारा धर्म इतना दुर्बल है कि वह विरोधी विचार सुनने मात्र से घबराता है, कतराता है। जो विचार अपने ध्यान में नहीं बैठता हो तो उसका प्रतिवाद भी हो सकता है। प्रतिवाद करना बुरा नहीं, परन्तु हमारे यहाँ तो प्रतिवाद का अर्थ विचार के बदले गालियाँ देना है। इधर-उधर काना-फूसी में गालियाँ दें, या अखबारों में, बात एक ही है । और इसका परिणाम होता है कि कितनी ही बार समझदार व्यक्ति सब कुछ समझकर भी सत्य के समर्थन के लिए समाज के सामने नहीं आते। चुप होकर बैठे रहते हैं - अपनी इज्जत बचाने के लिए। इतना आतंक है इन रूढ़िचुस्त महाप्रभुओं का ! ध्वनिवर्धक का प्रश्न क्यों अटकता रहा? ध्वनिवर्धक का प्रश्न कुछ तो वस्तु स्थिति को न समझने के कारण अटका हुआ है, और कुछ इधर-उधर के बौखलाये हुए लोगों के आतंक के कारण। एक बात और भी है, कुछ लोगों ने इसे शुद्ध आचार का मापदण्ड ही बना लिया है। कुछ महानुभाव तो वस्तुतः प्रचलित मान्यताओं के कारण भ्रम में हैं, फलतः विद्युत को अग्नि समझते हैं, वह भी सचित्त और इस कारण हिंसा भय से ध्वनिवर्धक पर नहीं बोल रहे हैं। परन्तु मुझे तरस तो आता है उन लोगों पर, जो चरित्रहीन हैं। साधुता तो क्या, नैतिकता का धरातल भी जिनके पास नहीं
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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