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श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४-१ अक्टू.-दिस. ०९-जन.-मार्च १०
ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है?
उपाध्याय अमरमुनि
प्रस्तुत लेख 'श्री अमर भारती' के अप्रैल-मई,२००८ अंक में प्रकाशित हुआ था। लेख विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और समसामयिक होने से साभार यहां प्रकाशित किया जा रहा है। आज जैन साधु एवं श्रावक समाज में विद्युत अग्नि है या नहीं, इस प्रश्न को लेकर काफी ऊहापोह की स्थिति है। सही स्थिति की जानकरी न होने के कारण साधु भगवन्तों की प्रवचन सभाओं में हजारों की भीड़ हो जाती है, सुनाई कुछ देता नहीं है, शोरगुल होता है, आकुलता बढ़ती है, तथा जनता के मन खिन्न हो जाते हैं। यह एक प्रकार की मानसिक हिंसा है। आशा है उपाध्याय श्री अमर मुनि का काफी पहले लिखा गया यह प्रस्तुत लेख इस विषय में संशय की स्थिति
को दूर कर सही स्थिति कायम करने में सफल होगा। -सम्पादक ___ आज से लगभग पैतीस वर्ष पहले की बात है; अजमेर में बड़े समारोह के साथ 'साधु सम्मेलन' हुआ था। मैं भी उसमें गया था, प्रतिनिधि के रूप में नहीं, गुरुदेव की सेवा में एक साधारण शिष्य के रूप में। ध्वनिवर्धक का प्रश्न आया तो कुछ मुनि बोल गए और कुछ नहीं बोले। बस, तभी से ध्वनिवर्धक का प्रश्न उलझ गया। संघ में उस समय बड़े-बड़े नामी-गिरामी महारथी थे, परन्तु किनारे का निर्णय नहीं कर सके और प्रश्न अधिकाधिक जटिल होता गया। अनिश्चय की परम्परा आगे बढ़ चली
इसके बाद तो 'सादड़ी सम्मेलन' हुआ, 'सोजत सम्मेलन' हुआ और फिर 'भीनासर (बीकानेर) सम्मेलन' हुआ। ध्वनिवर्धक का प्रश्न अधर में लटकता रहा। भीनासर में इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास हुआ, बिलकुल बेकार का। न पुत्रो न पुत्री। न इधर न उधर। सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक चर्चा होकर निर्णय होना चाहिए था वैसा तो कुछ हुआ नहीं। बस, आप मान जाइए, आप मान लीजिए। संगठन को कायम रखना है। यह टूट न जाए और इस प्रकार संगठन के व्यामोह में लूला-लंगड़ा प्रस्ताव पास हो गया, जो अब तक परेशान कर रहा है-विरोधी और अनुरोधी दोनों ही पक्षों को। भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः। स्वयं मेरी