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श्रमण, वर्ष ६० - ६१, अंक ४-१ अक्टू. - दिस. ०९ - जन. - मार्च १०
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पातञ्जल योगदर्शन' और हेमचन्द्राचार्य रचित 'योगशास्त्र' में प्राणायाम का निरूपण
प्रो. डॉ. विष्णुकुमार पुरोहित*
'योग' शब्द का अर्थ एवं परिभाषा :
योग शब्द 'युज समाधौं' युज् धातु चौथा गण (आत्मनेपदी) को धञ् प्रत्यय से निष्पन्न है। अतः इसका अर्थ समाधि अर्थात् चित् वृत्ति का नियमन है। योग शब्द अन्यत् 'यूजपी योगे' एवं 'युजिंच समाधौ ' जैसी धातुओं से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब योग का अर्थ जोड़ना तथा नियमन करना होगा, जो अर्थ योगदर्शन में प्रतिपादित योग की परिभाषा 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः " के प्रति अनुकूल नहीं होने से यहाँ यह अर्थ स्वीकृत नहीं है । अतः योग का अर्थ समाधि अर्थात् चिप्रवृत्तियों का निरोध ही स्वीकृत है।
योग का फल :
'योगदर्शन' के रचयिता महर्षि पतञ्जलि ने योग के फल अथवा परिणाम के विषय में कहा है- 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्" अर्थात् जब योगी परिपक्व अवस्था में पहुँच जाते हैं तब उनको स्वयं की वास्तविक संरचना अथवा स्वरूप का विशेष ज्ञान एवं ईश्वर के वास्तविक रूप का परिज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त अन्य फल इस प्रकार हैं
मेधा की प्राप्ति :
योगी को नित्य - अनित्य, सुख-दुःख आदि को यथार्थ स्वरूप में जानने की बुद्धि प्राप्त होती है।
तीव्र स्मृति की प्राप्ति :
योगी को श्रुत, अनुभूत और मननीय विषयों की त्वरित स्मृति एवं पुनः स्मृति सामर्थ्य प्राप्त होती है।
एकाग्रता की प्राप्ति :
योगी इच्छित विषयों में चित् को एकाग्र कर सकता है और उक्त विषय में अपने हृदय को एकाग्र कर सकता है।
* अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, गवर्मेन्ट आर्ट्स कॉलेज, गाँधीनगर