________________
७२ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च- १०
जैनागम ग्रन्थों तथा अन्य जैन शास्त्रों में अनेक प्रकार के शुभाशुभ शकुन का उल्लेख मिलता है। शुभ शकुनों में १२ प्रकार के वाद्यों की ध्वनि का एक साथ सुनाई पड़ना तथा शंख की ध्वनि, पूर्णकलश, शृङ्गार, छत्र, वाहन, यान, श्रमण, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, पताका आदि का दर्शन करना प्रमुख है।" पक्षियों में जंबूक, चास, मयूर, भारद्वाज, नकुलादि शुभ माने गए हैं, यदि ये दक्षिण दिशा में दिख जाएं तो प्रभूत सम्पत्ति का लाभ होता है । तिथि, करण, नक्षत्रादि पर भी प्रभूत विचार होता था ।
श्रमण परम्परा के शास्त्रों में अनेक प्रकार के मनोरंजन - खेल - कूद, आमोद प्रमोद के संसाधनों, खिलौनों आदि का उल्लेख मिलता है। अनेक प्रकार के उत्सव, त्योहार, संखडि (भोज), यज्ञ, गोष्ठी, पर्व, आदि मनाए जाते थे। अनेक प्रकार के क्रीड़ोद्यानों का भी वर्णन मिलता है।
आचारनिष्ठा की द्वैविध्यता स्वीकृत है। श्रमणव्रत में पाँच महाव्रतों की अखण्डनिष्ठा वांक्ष्य है। प्राण चला जाए तो चला जाए लेकिन व्रतभङ्ग स्वीकार नहीं है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अखण्डता से पालन करना ही पूर्ण श्रामण्य धर्म माना जाता है।
श्रमणधर्म का पालन करना सबके वश और सामर्थ्य का विषय नहीं है . इसलिए श्रावक व्रत अथवा गृहस्थ धर्म की निष्ठा भी प्रतिष्ठित हुई । कुछ विकल्पों के साथ व्रत ग्रहण की स्वीकृति दी गई। उपासकदशांग में श्रावकों के जीवन के माध्यम से गृहस्थ धर्म का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।
साधक मार्ग में आचारमीमांसा, नित्य क्रियाओं आदि का विस्तार से वर्णन है। सात तत्त्वों किंवा नौ तत्त्वों के साथ षडद्रव्य की मीमांसा की गई है। अनेकान्तवाद न केवल श्रमणपरम्परा की अमूल्य धरोहर है बल्कि आज के समस्त विवादों, कलहों को समूल शान्त करने में भी सक्षम है।
ऐहिक भोग, व्रत साधना, स्वाध्यायनिष्ठा, कठोरतपश्चर्या के साथ, 'योगेनान्ते तनूं त्यजाम् रूप कालिदासीया वाक्' की तरह अन्त में समाधिमरण का श्रेष्ठ वर कर परमशान्ति और तृप्ति में विरमित हो जाना श्रमण परम्परा का स्वारस्य है। सन्दर्भ सूची
१. आचारांग, १.१.२
२. वही, १.१.२
३. वही, १.१.३
४. ईशावास्योपनिषद्, ६-७