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ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है? : ९
द्वारा उसे दहकाते हैं। अन्यत्र भी जहाँ कहीं देवों द्वारा अग्नि का कार्य आया है, अग्निकुमारों द्वारा ही निष्पन्न होने का उल्लेख है। प्रश्न है, यदि विद्युत् अग्नि है तो फिर, यह कार्य विद्युत कुमारों के द्वारा क्यों नहीं कराया गया? और यदि विद्युत् सचमुच में अग्नि ही है तो एक अग्नि कुमार देव ही काफी हैं, अलग से विद्युत् कुमार को मानने की क्या आवश्यकता है? अग्निकुमारों के मुकुट का चिह्न पूर्ण कलश बताया है, और विद्युत्कुमारों का वज्र'। ये दोनों चिह्न अलग क्यों हैं, जबकि वे दोनों ही अग्निदेव हैं। विद्युत् कुमारों का वज्र का चिह्न वस्तुतः उस लोकमान्यता की स्मृति करा देता है, जो विद्युत् को इन्द्र का वज्र मानती रही है। उक्त विवेचन से यह मालूम हो जाता है कि उक्त सूत्रकार विद्युत् को अग्नि नहीं मानते थे, अग्नि से भिन्न कोई अन्य ही दिव्य वस्तु उनकी कल्पना में थी।
विद्युत् का मूल अर्थ है-'चमकना'। आकाश में बादल छाये और उनमें एक चमक देखी, और उसे विद्युत् कहा जाने लगा। विद्युत् के जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, उनमें कोई भी एक ऐसा शब्द नहीं है, जो अग्नि का वाचक हो, और अग्नि के जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, उनमें एक भी ऐसा शब्द नहीं, जो विद्युत् का वाचक हो। अतः स्पष्टतः सिद्ध है कि अग्नि और विद्युत् दो भिन्न वस्तुएं हैं। अग्नि और विद्युत् के गुणधर्म एक नहीं हैं
पदार्थों का अपना अस्तित्व अपने गुणधर्मों के अनुसार होता है। इस कसौटी पर जब उसे हम कसते हैं तो अग्नि और विद्युत् के गुण-धर्म एक सिद्ध नहीं होते। अग्नि और जल परस्पर विरोधी हैं। जल में अग्नि नहीं रह सकती है। जल तो अग्नि का परकाय शस्त्र है। अतः वह उसे बुझा देता है, प्रदीप्त नहीं करता। और विद्युत् बादलों में प्रत्यक्षतः ही जल में रहती है और इसीलिए अन्नंभट्ट जैसे दार्शनिक उसे अबिन्धन कहते हैं, अर्थात् जल को बिजली का ईंधन बताते हैं। यहाँ धरती पर भी पानी विद्युत् का चालक है। जल में तथा जल से भीगी हुई वस्तुओं में विद्युत्धारा अच्छी तरह प्रवहमान हो जाती है। अतः सिद्ध है कि विद्युत् अग्नि नहीं है। यहाँ अग्नि और विद्युत् जैन धारणा के अनुसार भी दो विपरीत केन्द्रों पर स्थित हैं।
जैनाचार्य वनस्पति का परकाय शस्त्र अग्नि को मानते हैं,१२ और यह प्रत्यक्षसिद्ध भी है। काष्ठ को अग्नि भस्म कर डालती है। परन्तु विद्युत् का स्वभाव अग्नि के उक्त स्वाभाव से भिन्न है। काष्ठ (सूखी लकड़ी) विद्युत् चालक नहीं है। लकड़ी पर खड़े होकर विद्युत् के तार को यदि हम छूते हैं तो विद्युत् का प्रभाव स्पर्शकर्ता पर नहीं पड़ता है। लकड़ी में विद्युत् धारा नहीं आ सकती है।