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१४६ : श्रमण, वर्ष ६० - ६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च - १०
वाले मुनि श्री प्रणम्य सागरजी जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान संत हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में १०५ पद्यों का आर्हत् भाष्य व हिन्दी में तार्किक ढंग से उनका अनुवाद किया गया है। इस ग्रंथ में आत्मा की सत्ता को स्वीकार करने के लिए उसके तीन दशाओं का इस ग्रंथ में सविस्तार वर्णन किया गया है। आत्मा की तीन दशा है- (१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा।
एक ही आत्मा बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा होकर परमात्मा बन सकता है, यह सिद्धान्त या अवधारणा सबसे पहले आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलती है। आचार्य पूज्यपाद ने उसी आर्हत् परम्परा को गतिशील बनाया। इसी गतिशीलता को आगे बढ़ाने वाले मुनि श्री प्रणम्य सागरजी महाराज हैं। मुनिश्री ने इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करके एक सराहनीय कार्य किया है । आशा है यह पुस्तक जैन धर्म एवं दर्शन के शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।
- डॉ. धर्मेन्द्र सिंह गौतम