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________________ श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९ जैन धर्म में भक्ति का स्वरूप डॉ० ओम प्रकाश सिंह जैन धर्म में भक्ति का जो स्वरूप प्राप्त होता है वह परन्तु जैन धर्म इस विषय में सब धर्मों से अलग पड़ जाता है। अन्य धर्मों में मान्य भक्ति के स्वरूप से भिन्न है। कारण कि जैन तीर्थंकरों में किसी व्यक्ति विशेष को ईश्वर या परमात्मा जैन धर्म में वीतरागता की प्रधानता है और जहाँ वीतरागता है नहीं माना गया और न ही उसे संसार का कर्ता-धर्ता ही माना वहाँ भक्ति का स्वरूप भी कुछ अलग होना निश्चित है, क्योंकि गया है। जैन मान्यता के अनुसार ईश्वर, भगवान्, परमात्मा भक्ति में भगवान् या आराध्य के प्रति रागता की प्रमुखता होती एक गुण विशिष्ट पद का सूचक है, व्यक्ति विशेष का नहीं। है और जब रागता की परिणति उपास्य और उपासक रूपी द्वैत । इन गुणों को पूर्ण विकसित या प्रकट करने वाले अब तक को समाप्त कर अद्वैत रूप में होती है तब भक्ति पूर्णता को अनन्त व्यक्ति हो चुके हैं, अत: वे सभी ईश्वर, भगवान् या प्राप्त होती है। लेकिन जैन धर्म के अनुसार आत्मा द्वारा अपने परमात्मा बन चुके हैं। ही निरावरण शुद्ध स्वरूप या परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना इससे इतना तो स्पष्ट है कि जैन धर्म में मान्य उपासना अर्थात् परमात्मा बन जाना भक्ति की चरम निष्पत्ति है। जैन की प्रक्रिया में अन्य धर्मों से अनेक बातों में साम्य या वैषम्य धर्म में भक्ति की अवधारणा कैसे और किस रूप में आयी इस हो सकता है, किन्तु भक्ति के मूल स्वरूप के विषय में निःसदेह सम्बन्ध में डॉ० सागरमल जैन का कहना है- 'जहाँ तक मेरी भिन्नता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जैनधर्म में ईश्वर जानकारी है आगमों में सत्थारभक्ति भत्तिचित्ताओं (ज्ञाताधर्म) कोन मानने के कारण ईश्वर के प्रति की जाने वाली भक्ति और शब्द मिलता है। सर्वप्रथम ज्ञाताधर्म में तीर्थंकर पद की प्राप्ति उपासना की प्रधानता नहीं है, किन्तु अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त में सहायक जिन २० कारणों की चर्चा है उनमें श्रुतभक्ति आत्मा अर्थात् परमात्मा तथा अन्य महापुरुषों की भक्ति करने (सुयभत्ति) का स्पष्ट उल्लेख है। इसके साथ ही उसमें का विधान किया गया है। अन्य धर्मों में भक्ति का मुख्य प्रायोजन अरहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, तपस्वी आदि के प्रति भक्त की कामनापूर्ति बताया गया है, किन्तु जैनधर्म में भक्ति का वत्सलता का उल्लेख हुआ है। आगे चलकर वात्सल्य को प्रायोजन आत्म-स्वरूप को प्राप्त करना है। भक्ति का एक अंग मान लिया गया। आवश्यकनियुक्ति में जैनाचार्यों ने दश प्रकार की भक्ति का वर्णन किया सर्वप्रथम भक्तिफल की चर्चा हुई है। है-सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, ईश्वरवादी धर्म ईश्वर को सर्वशक्तिमान और जगत् का आचार्य-भक्ति, निर्वाण-भक्ति, पंचपरमेष्ठी-भक्ति, कर्ता-धर्ता मानते हैं, अत: उनमें ईश्वर या परमात्मा की तीर्थंकर-भक्ति, नन्दीश्वर-भक्ति, शान्ति-भक्ति । यहाँ उपासना उनकी कृपा प्राप्ति के लिए की जाती है, ताकि वे हम इन दश भक्तियों के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत प्रसन्न होकर भक्त या उपासक का कल्याण करेंगे, इस कारण करेंगेवे भगवान् की पूजा, भक्ति व उपासना करते हैं। भक्त अपनी १.सिद्धभक्ति- आचार्य पूज्यपाद के अनुसार सिद्धों इच्छाओं को प्रभु-इच्छा में विलीन कर देता है। ज्यों-ज्यों की वन्दना करनेवाला उनके अनन्त गुणों को सहज में ही पा मनुष्य प्रभु के समीप पहुँचता है, उसे दिव्यत्व प्राप्त होने लेता है। सिद्धों के भक्त, भक्तिमात्र से सिद्ध पद को भी प्राप्त लगता है। अन्ततोगत्वा भक्त और भगवान् एक हो जाते हैं। करते हैं। सिद्धों को सिर झुकाना सर्वोत्तम भाव-नमस्कार है। * पूर्व शोध छात्र, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
SR No.525067
Book TitleSramana 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2009
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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