SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन चिन्तन में प्राणायाम : एक अनुशीलन ३५ होती है और निरोगता प्राप्त होती है। जिस स्थान पर रोग उत्पन्न होती है, वायु में स्थिरता आती है। प्रत्याहार करने से शरीर में हुआ हो उसकी शांति के लिए उस स्थान पर प्राणादि वायु को बल और तेज की वृद्धि होती है। शान्त प्राणायाम से वात, रोकना चाहिए। उस समय सर्वप्रथम पूरक प्राणायाम करके पित्त, कफ या सन्निपात की व्याधि नष्ट होती है। उत्तर और उस भाग में कुम्भक प्राणायाम करना चाहिए। अधर प्राणायाम कुम्भक को स्थिर बनाते हैं। पैर के अंगुष्ठ, एड़ी, जंघा, घुटना, उरु, अपान और यह सत्य है कि नियुक्ति आदि में प्राणायाम का उपस्थ में अनुक्रम से वायु को धारण करने से गति में शीघ्रता निषेध किया गया है, पर जैन साधना में कायोत्सर्ग का विशिष्ट और बल की प्राप्ति होती है। नाभि में वायु को धारण करने से स्थान रहा है। दशवैकालिक में अनेक बार कायोत्सर्ग करने ज्वर नष्ट हो जाता है। जठर में धारण करने से मल-शुद्धि होती का विधान है। कायोत्सर्ग में कालमान श्वासोच्छ्वास से ही है और शरीर शुद्ध होता है। हृदय में धारण करने से रोग और गिना गया है। आचार्य भद्रबाहु ने दैवसिक कायोत्सर्ग में वृद्धावस्था नहीं आती। यदि वृद्धावस्था आ गयी तो उस समय १०० उच्छ्वास, रात्रिक कायोत्सर्ग में ५०, पाक्षिक में ३००, उसके शरीर में नौजवानों की-सी स्फूर्ति रहती है। कण्ठ में चातुर्मासिक में ५०० और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग में १००८ वायु को धारण करने से भूख-प्यास नहीं लगती है। यदि कोई उच्छ्वास का विधान किया है।२ श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म व्यक्ति क्षुधा-पिपासा से पीडित हो तो उसकी क्षुधा और प्रक्रियाओं की जैन साहित्य में जो स्वीकृति है वह एक प्रकार पिपासा मिट जाती है। जिह्वा के अग्रभाग पर वायु का निरोध से प्राणायाम की ही स्वीकृति है। इस दृष्टि से जैन परम्परा में । करने से रस ज्ञान की वृद्धि होती है। नासिका के अग्र भाग पर भी प्राणायाम स्वीकार किया गया है। जैन साधना जो कायोत्सर्ग वायु को रोकने से गंध का परिज्ञान होता है। चक्षु में धारण की साधना है वह प्राणायाम से युक्त है। जैन आगमों में करने से रूपज्ञान की वृद्धि होती है। कपाल व मस्तिष्क में दृष्टिवाद जो बारहवां अंग है, उसमें एक विभाग पूर्व है। पूर्व वायु को धारण करने से कपाल मस्तिष्क सम्बन्धी रोग नष्ट हो का बारहवां विभाग प्राणायुपूर्व है। कषायपाहुड' में उस पूर्व जाते हैं। रेचक प्राणायाम से उदर की व्याधि व कफ नष्ट होता का नाम प्राणवायुपूर्व है जिसमें प्राण और अपान का विभाग है। पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट होता है, व्याधि नष्ट होती है। विस्तार से निरूपित है। प्राणायु या प्राणवायुपूर्व के विषय कुम्भक प्राणायाम करने से हृदय कमल उसी क्षण विकसित वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन मनीषी प्राणायाम से हो जाता है। हृदयग्रंथी का भेदन होने से बल की अभिवृद्धि सम्यक् प्रकार से परिचित थे। सन्दर्भः १. योगसूत्र,२/९ तथा उपाध्यायअमरमुनि,योगशास्त्र-एक ६. आवश्यकनियुक्ति व आवश्यकचूर्णि, गाथा १५२४ परिशीलन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६३, पृ०- ४१ ७.. योगशास्त्र, ५/४ २. आवश्यकनियुक्ति तथा आवश्यकचूर्णि, गाथा १५२४ ८. वही, ५/१४-२० ३. योगशास्त्र, ६/४, ५/५ ९. वही, ५/२१ ४. जैनदृष्ट्या परीक्षितं पातंजलि योगदर्शनम्, २/५५, १०. वही, ५/३१ उद्धृत अध्यात्मसार, उपाध्याय यशोविजय ११. वही, ५/३२-३५ ५. सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा १२. दशवैकालिकसूत्र, मधुकर मुनि, पृ०-५७ अज्झवसाण-णिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते। १३. कषायपाहुड, अनु० पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री, फासे आणापाणू सत्तविधं भिज्जए आउं।। स्थानांगसूत्र, श्री वीर शासन संघ कलकत्ता, १९५५, १/२ मधुकर मुनि, ७/७२
SR No.525067
Book TitleSramana 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2009
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy