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जैन धर्म में भक्ति का स्वरूप
आचार्य सोमदेव का मानना है सिद्धों की भक्ति से सम्यक्- तीर्थंकर के पंचकल्याणक जिन स्थानों से सम्बन्धित हैं, वे भी दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक-चारित्र रूप तीन प्रकार के तीर्थ कहलाते हैं। तीर्थयात्राएँ और तीर्थस्तुतियाँ दोनों ही निर्वाणरत्नत्रय उपलब्ध होते हैं।
भक्ति के अंग हैं। २. श्रुतभक्ति- जिसके द्वारा सुना जाता है, जो
७. पंचपरमेष्ठी-भक्ति- अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, सुनता है या सुनना मात्र 'श्रुत' कहलाता है। वह एक ज्ञान उपाध्याय और लोक के सभी साधु पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं। विशेष के अर्थ में निबद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत यह क्रम साधु से अर्हन्त तक उत्तरोत्तर अधिकाधिक आत्मशुद्धि श्रुतभक्ति में श्रुतज्ञान की स्तुति करते हुए लिखा है- अर्हन्त के की दृष्टि से है। पंचपरमेष्ठी की भक्ति करने वाला जीवन के द्वारा कहे गये और गणधरों के द्वारा गुंथे गये, ऐसे महासागर अष्टकर्मों का नाश कर, संसार के आवागमन से छूट जाता है। प्रमाण श्रुतज्ञान को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। उसे सिद्धि-सुख और बहुत मान प्राप्त होता है।४ ३. चारित्रभक्ति- जो आचरण करता है, जिसके
८. तीर्थंकर-भक्ति- तीर्थ की स्थापना करने वाला. द्वारा आचरण किया जाये या आचरण करना मात्र चारित्र तीर्थंकर कहलाता है। यह संसाररूपी समुद्र जिस निमित्त से कहलाता है। वस्तुत: आचरण का दूसरा नाम ही चारित्र है। तिरा जाता है, वह तीर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में चारित्रभक्ति का सम्बन्ध अच्छे चारित्र से है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखा है कि सोलह कारण भावनाओं का ध्यान करने से ने लिखा है कि पूर्ण चारित्र का पालन कर मोक्ष गये हुए सिद्धों अल्पकाल में ही तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध होता है। उन की वन्दना से चारित्रगत विश्रृंखलता दूर होती है और मोक्षसुख भावनाओं में अर्हत्भक्ति भी है। इसका तात्पर्य है कि अर्हन्त की प्राप्ति होती है। उन्होंने पाँच प्रकार के चारित्र की भक्ति से (तीर्थंकर) की भक्ति करने वाला तीर्थंकर बन जाता है। कर्ममल का शुद्ध होना माना है।
आचार्य उमास्वाति ने भी तीर्थंकरत्व नाम-कर्म के कारणों में ४. योगिभक्ति- अष्टांगयोग को धारण करने वाला अर्हत्भक्ति को गिनाया है।१६ योगी कहलाता है। आचार्य पूज्यपाद ने योगियों के द्वारा किये ९. नन्दीश्वर-भक्ति- जैन धर्म के अनुसार मध्यलोक गये द्विविध तपों का विशद् वर्णन किया है। अन्त में उन्होंने में असंख्यातद्वीप और समुद्र हैं जो एक-दूसरे को घेरे हुए हैं, योगी की स्तुति करते हुए लिखा है- तीन योग धारण करने दोहरे विस्तार और चूड़ी के आकारवाले हैं। उन सबके मध्य वाले, बाह्य और आभ्यन्तर रूप तप से सुशोभित पुण्यवाले, में जम्बूद्वीप है, उसका विस्तार एक लाख योजन है, उसे दो मोक्षरूपी सुख की इच्छा करने वाले मुनिराज, मेरे जैसे स्तुतिकर्ता लाख योजन का लवण समुद्र घेरे हुए है। इसी क्रम से आठवाँ को सर्वोत्तम शुक्लध्यान प्रदान करें।
द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। नन्दीश्वर द्वीप के कृत्रिम जिन-मन्दिरों ५ आचार्य-भक्ति- शुद्धभाव से आचार्य में अनुराग और उनमें विराजमान जिन-प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना करना करना, आचार्यभक्ति कहलाती है। अनुराग से अनुप्राणित । नन्दीश्वर भक्ति कहलाती है। कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ होकर ही भक्त कभी तो आचार्य को नये-नये उपकरणों का के अन्तिम ८ दिनों में सौधर्म प्रमुख विबुधपति नन्दीश्वर द्वीप दान देता है, कभी उनके प्रति आदर दिखाता है और कभी में जाते हैं और दिव्य अक्षत, गन्ध, पुष्प और धूप आदि द्रव्य शुद्ध मन से उनके पैरों का पूजन करता है।१२
से उन अप्रतिम प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।८ ६.निर्वाण-भक्ति- जो निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं
१०.शान्ति-भक्ति- शान्ति का अर्थ है निराकुलता। उनकी भक्ति करना निर्वाण-भक्ति है। इस भक्ति में शान्ति के लिए की गयी भक्ति शान्ति-भक्ति कहलाती है। भगवान पंचकल्याणक-स्तवन, तीर्थंकरों की स्तुति और निर्वाण-स्थलों जिनेन्द्र की भक्ति से क्षणिक और शाश्वत दोनों ही प्रकार की शान्ति के प्रति भक्ति-भाव शामिल है। निर्वाण-स्थल वे हैं जहाँ मिलती है। जिनेन्द्र ने शाश्वत शान्ति प्राप्त कर ली है। वे शान्ति तीर्थंकरों को निर्वाण प्राप्त हुआ है। उनकी भक्ति संसार- के प्रतीक माने जाते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने शान्ति-भक्ति में सागर से तारने में समर्थ है, अतः उन्हें तीर्थ भी कहते हैं।१३ लिखा है कि 'जिनेन्द्र चरणों की स्तुति करने से समस्त विघ्न