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उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित पंचमहाव्रत
का पोषक है, जिससे अनेक दोषों का जन्म एवं पापकर्म का भी नहीं सकता, अत: साधु को गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में
ता है, इसलिए श्रमण को प्रमाद, क्रोध, लोभ, हास्य जो भोजन प्राप्त हो उसी का आहार करना चाहिए।२२।। एवं भय से झूठ न बोलकर उपयोगपूर्वक हितकारी सत्य ब्रह्मचर्य वचन बोलना चाहिए, यही सत्य महाव्रत है। असभ्य वचन कृत, कारित अनुमोदनापूर्वक देव, मनुष्य और तिर्यञ्चजो दूसरे को कष्टकर हो ऐसा भी नहीं बोलना चाहिए। इसमें सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन-सेवन का मन, वचन, काय से भी अहिंसा महाव्रत की तरह कृत, कारित, अनुमोदना एवं मन, त्याग करना ब्रह्मचर्य-महाव्रत है। उत्तराध्ययन में इसके १८ वचन, काय से झूठ न बोलने का अर्थ सन्निविष्ट है। 'अच्छा भेदों का संकेत मिलता है। भोजन बना है', 'अच्छी तरह से पकाया गया है' इत्यादि उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए १० विशेष प्रकार के सावध वचन तथा 'आज मैं यह कार्य अवश्य कर बातों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है, जिन्हें ग्रंथ में लूंगा', 'अवश्य ही ऐसा होगा' इस प्रकार की निश्चयात्मक समाधिस्थान का नाम दिया गया है। इन दस समाधिस्थानों में वाणी बोलने का भी ग्रन्थ में निषेध है। अत: सत्य महाव्रत ____ अंतिमसंग्रहात्मक समाधिस्थान को छोड़करशेष९ कोटीकाकारों का पालन अत्यन्त कठिन है।
ने ब्रह्मचर्य की गुप्तियां (संरक्षिका) कहा है। चित्त को एकाग्र उत्तराध्ययन में सत्य वचन बोलने की क्रमिक तीन करने के लिए इनका विशेष महत्त्व होने के कारण इन्हें अवस्थायें बतलायी गयी हैं।८ - भाव सत्य, करण सत्य और समाधिस्थान कहा गया है। ये समाधिस्थान डॉ० सुदर्शनलाल योग सत्या इस तरह झूठ बोलनेवाला एक झूठ को छिपाने जैन के द्वारा निम्नलिखित रूप में विभाजित किये गये हैं - के लिए अन्य अनेक झूठ बोलता है और हिंसा, चोरी आदि १. स्त्री आदि से युक्त संकीर्ण स्थान के सेवन का क्रियाओं में प्रवृत्त होता हुआ सुखी नहीं होता है। सत्य त्याग- जहाँ पर स्त्री, पशु, नपुंसक आदि का आवागमन सम्भव बोलनेवाला जैसा बोलता है वैसा ही करता है और प्रामाणिक है.ऐसे स्थानों में शन्य घरों में और जहाँ पर घरों की सन्धियां पुरुष होकर सुखी होता है।
मिलती हों ऐसे स्थानों में तथा राजमार्ग में अकेला साध अकेली अचौर्य
स्त्री के संसर्ग में न आये, क्योंकि इन स्थानों में साधु का स्त्री तृतीय महाव्रत की संज्ञा 'सर्व-अदत्तादान-विरमण' के साथ संसर्ग में आना, जनता में संदेह का कारण बन सकता है, जिसके अंतर्गत श्रमण बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण है। इसलिए उक्त स्थानों में संयमी पुरुष कभी न जायें। जैसे नहीं करता। किसी की गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई अथवा बिल्लियों के स्थान के पास चूहों का रहना योग्य नहीं, उसी तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी की आज्ञा के ग्रहण न प्रकार स्त्रियों के स्थान के समीप ब्रह्मचारी को निवास करना करना अचौर्य महाव्रत है। मन, वचन,शरीर एवं कृत, कारित, उचित नहीं है। इसलिए मुनि को भी स्त्री, पशु आदि से रहित अनुमोदना से इस व्रत का पालन करना आवश्यक है। इसके एकान्त स्थान में ही निवास करना उपयुक्त है। अतिरिक्त जो वस्तु ग्रहण करे वह निरवद्य एवं निर्दोष हो।र २.निर्ग्रन्थ साधु बार-बार स्त्रियों की कामजनक अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए निरवद्य एवं निर्दोष विशेषण कथा न कहे- साधु को स्त्रियों की बार-बार कथा नहीं करनी दिया गया है, क्योंकि सावद्य एवं सदोष वस्तु के ग्रहण करने चाहिए और ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु को मन को आनन्द देनेवाली, में हिंसा का दोष लगता है। सभी सचित्त वस्तुओं को ग्रहण कामराग को बढ़ानेवाली स्त्री-कथा का भी त्याग करना चाहिए।" करना साधु के लिए निषेध माना गया है। इसलिए सचित्त ३. स्त्री आदि से युक्त शय्या और आराम का वस्तु किसी के द्वारा दिये जाने पर भी उसे ग्रहण करना चोरी त्याग- निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्रियों के साथ है। बतलाये गये व्रतों का ठीक से पालन न करना भी चोरी है। एक आसन पर बैठकर कथा, वार्तालाप, परिचय आदि न उत्तराध्ययन में कहा गया है - धनधान्यादि का ग्रहण करना करते हुए आकीर्ण और स्त्री-जन से रहित स्थान में रहना नरक का हेतु है। इसलिए बिना आज्ञा के साधु तृणमात्र पदार्थ चाहिए, क्योंकि तत्काल वहाँ पर बैठने से स्मृति आदि दोष को भी अंगीकार न करे। लेकिन यह शरीर बिना आहार के रह लगने की संभावना रहती है।