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________________ ३० . श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९ ४. कामराग स्त्रियों की मनोहर तथा मनोरम १०. शब्दादि पाँचों प्रकार के कामगुणों का इन्द्रियों का त्याग- ब्रह्मचारी भिक्षु को स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग त्याग- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इस दसवें समाधिस्थान में और संस्थान आदि का निरीक्षण करना तथा उनके साथ ब्रह्मचारीको शब्द,रूप,गन्ध,रस और स्पर्श इन पाँचकामगुणों सुचारु भाषण करना और कटाक्षपूर्वक देखना आदि बातों को का सदा परित्याग करने के लिए कहा गया है, क्योंकि ये सब एवं चक्षुग्राह्य पर-विषयों को त्यागने के लिए कहा गया है।३ आत्मगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान हैं। इसलिए अत: इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होने पर वीतरागतापूर्वक एकाग्र मनवाले साधु को समाधि की दृढ़ता के लिए इन दुर्जय शुभध्यान करना चाहिए। स्त्रियों के रूप, सौन्दर्य को देखकर काम-भोगों तथा शंका स्थानों को छोड़ देना चाहिए। पुरुष को उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए। इसीलिए ग्रन्थ में इस प्रकार सम्यक्त्या सर्वथा मैथुन से निवृत्त चतुर्थ स्त्रियों को पंकभूत (दलदल) तथा राक्षसी कहा गया है।३५ महाव्रत की आराधना एवं पालना करने वाले ब्रह्मचारी को ५. स्त्रियों के श्रोत्रग्राह्य शब्दों का निषेध- पंचम देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष एवं किन्नर ये सभी ब्रह्मचारी को समाधिस्थान में स्त्रियों के कूजित, रूदित्त, हसित, स्तनित, नमस्कार करते हैं; क्योंकि वह दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन कुपित आदि शब्दों को न सुनना जिनसे कामराग बढ़े, कारण करता है। कि इनसे मन की चंचलता में वृद्धि होती है और ब्रह्मचर्य में अपरिग्रह आघात पहुंचता है। धन, धान्य, भृत्य आदि जितने भी निर्जीव एवं सजीव ६.स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति और काम-क्रीड़ा पदार्थ हैं, उन सबका मन, वचन, काय से निर्मोही होकर का स्मरण न करे-स्त्री के साथ की गई पूर्वरतिक्रीड़ा की स्मृति ममत्व का त्याग करना अपरिग्रह या अकिंचन महाव्रत कहलाता से निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा और सन्देहादि है। अतः साधु किसी खाद्य पदार्थ का अंशमात्र भी संग्रह न दोष उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, संयम का नाश एवं उन्माद करे तथा चतुर्विध आहार में से किसी आहार का भी संग्रह की प्राप्ति होती है तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण करके रात्रि को न रखें। सोने-चांदी आदि को ग्रहण करने की भी होता है।३७ इच्छा भी मन से न करे। इस तरह सभी प्रकार के धन७. सरस आहार-पानी तथा प्रणीत रस-प्रकाम धान्यादि का त्याग करके तृणमात्र का भी संग्रह न करना का त्याग-ग्रन्थ में ब्रह्मचारी के लिए रसों का अत्यन्त सेवन अपरिग्रह है। अपरिग्रह को ही वीतरागता कहा गया है, क्योंकि वर्जित है। कहा गया है जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष पर पक्षी जब तक विषयों में विराग नहीं होगा तब तक जीव अपरिग्रही आकर बैठते हैं और अनेक प्रकार से उसको कष्ट पहुँचाते हैं नहीं हो सकता है। विषयों के प्रति राग या लोभ-वृद्धि का उसी प्रकार रससेवी (घी, दूध आदि रसवाले द्रव्यों के सेवन होना ही परिग्रह है। उत्तराध्ययन में कहा गया है, जैसे-जैसे से) पुरुष को कामादि विषय अत्यन्त.दःखी करते हैं।२८ लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ होता है तथा लोभ के बढ़ने पर ८. अत्यधिक भोजन का त्याग- जैसे वायु के परिग्रह भी बढ़ता जाता है। यह वीतरागता अतिविस्तृत सुस्पष्ट साथ मिलने से वन में लगी हई अग्नि, शीघ्र शांत नहीं होती राजमार्ग है, जिसके समक्ष अज्ञानमूलक जप-तप आदि उसी प्रकार प्रमाण से अधिक भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की सोलहवीं कला को भी नहीं पाया जा सकता है। जो इन इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती। अतः खाने से यदि विकार की विषयों के प्रति ममत्व नहीं रखता है वह इस लोक में दुःखों उत्पत्ति विशेष होती हो तो उसको त्यागकर ब्रह्मचर्य की रक्षा से अलिप्त होकर आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है तथा करनी चाहिए। परलोक में देव या मुनि-पद को प्राप्त करता है। परन्तु जो ९. शरीर की विभूषा का त्याग- ब्रह्मचर्य में अनुराग परिग्रह का त्याग नहीं करता है वह पाप-कर्मों को करके करनेवाले साधु को शरीर की विभूषा का त्याग करना चाहिए। संसार में भ्रमण करता हुआ नरक में जाता है। अत: उसे उत्तम संस्कार करना, शरीर का मण्डन करना, केश इस तरह अपरिग्रह से तात्पर्य यद्यपि पूर्ण वीतरागता आदि को संवारना छोड़ देना चाहिए। से है, परन्तु ब्रह्मचर्य-व्रत को इससे पृथक् कर देने के कारण
SR No.525067
Book TitleSramana 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2009
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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