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________________ श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९ उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित पंचमहाव्रत डॉ० शर्मिला जैन* पंचमहाव्रत सम्पूर्ण श्रमणाचार की आधारशिला है। भोगे बिना नहीं रह सकते हैं। भगवान् अरिष्टनेमि अपने पंचमहाव्रत ही श्रमण-आचार का वह केन्द्र-बिन्दु है, जहाँ से विवाह के अवसर पर जब विवाह की खुशी में खाने के लिए अनेक क्रियायें विभिन्न नियमों-उपनियमों के रूप में प्रसारित मारे जानेवाले पशु-पक्षियों को देखते हैं, तो कहते हैं कि यह होती हैं अथवा संगठित होकर केन्द्ररूपी पंचमहाव्रत की सुरक्षा लोक मेरे लिए सुखकर नहीं है। क्योंकि अज्ञात में हुई हिंसा और विकास के विस्तृत आयाम प्रस्तुत करती हैं। पंचमहाव्रतों भी घातक है, अत: प्रत्येक प्राणी को हिंसावृत्ति एवं वैरभाव को श्रमण जीवन भर के लिए मन-वचन और काय से धारण छोडकर जीवों की रक्षा करनी चाहिए। करता है और इनकी सर्वांशत: सुरक्षा करता हुआ निर्वाण की अहिंसा-व्रत का पालन करने के लिए अपना अहित भूमिका तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है। जैन श्रावक की करने वाले के प्रति भी क्षमाभाव रखना, उसे अभयदान देना, अपेक्षा जैन श्रमण हिंसा आदि का पूर्णत: त्याग नवकोटि' से सदा विश्वमैत्री, विश्व-कल्याण की भावना रखना तथा वध करता है। प्रस्तुत आलेख में हम उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार करने को तत्पर होने पर भी उसके प्रति जरा भी क्रोध न करना पंचमहाव्रत की विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं-२ आदि आवश्यक है। इसके अतिरिक्त गृह-निर्माण, शिल्पकला, ये व्रत इस प्रकार हैं - क्रय-विक्रय, अग्नि जलाना आदि क्रियायें न तो स्वयं करनी १. अहिंसा-सब प्रकार के प्राणातिपात से विरमण। चाहिए और न दूसरे से करानी चाहिए, क्योंकि इनके करने से २. सत्य- सब प्रकार के मृषावाद से विरमण। सूक्ष्म जीवों की हिंसा का दोष लगता है। साधु को भिक्षा लेते ३. अचौर्य-सब प्रकार के अदत्तादान से विरमण। समय इन सब दोषों से बचना आवश्यक बतलाया गया है।' • ४. ब्रह्मचर्य-सब प्रकार के यौन सम्बन्धों से विरमण मल-मूत्र आदि का त्याग करते समय भी सूक्ष्म जीवों का हिंसा और न हो इसलिए बहुत नीचे तक अचित्त भूमि के उपयोग का निर्देश ५. अपरिग्रह- सब प्रकार के धनादि-संग्रह से किया गया है। इसीलिए ग्रन्थ में इस व्रत के पालन करने को विरमण। अत्यंत कठिन कहा गया है तथा गौतम को लक्ष्य करके इन पांच व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करना महाव्रत । प्रमादरहित रहने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि प्रमाद से कहलाता है और मुनि के लिए इनका पालन अनिवार्य है। विवेकज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है और जब तक विवेकज्ञान गृहस्थ उपासक के लिए ये ही अणुव्रत के रूप में विहित हैं। नहीं होगा तब तक अहिंसा का पालन करना संभव नहीं है।' अहिंसा उत्तराध्ययन में अहिंसा-व्रत का पालन करने वाले को ब्राह्मण त्रस एवं स्थावर जीवों को मन, वचन, काय तथा कहा गया है तथा इसका पालन न करने वाले के लिए नरक की कृत, कारित, अनुमोदना से किसी भी परिस्थिति में दुखित न प्राप्ति का मार्ग बतलाया गया है। इस प्रकार इस व्रत का स्थान करना अहिंसा महाव्रत है। मन में दूसरे को पीड़ित करने की पंचमहाव्रतों में प्रथम और श्रेष्ठ है। सोचना तथा किसी के द्वारा दूसरे को पीड़ित करने पर उसका सत्य समर्थन करना भी हिंसा है। अतः ग्रंथ में कहा गया है कि जो द्वितीय महाव्रत 'सर्व-मृषावाद-विरमण' है, क्योंकि प्राणवध का अनुमोदन करते हैं वे भी सभी दुःखों के फल *व्याख्याता, दर्शनशास्त्र, दानापुर डिग्री महिला महाविद्यालय, दानापुर, पटना
SR No.525067
Book TitleSramana 2009 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2009
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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