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पर्यावरण और वनस्पति : ३ वनस्पतियाँ भारतवर्ष की अमल्य निधि हैं। ऐसी मान्यता है कि भारतवर्ष में वनस्पतियों की ४७००० प्रजातियाँ हैं। मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए प्राणवायु, जलवायु तथा पर्यावरण संतुलन और आर्थिक समृद्धि में वनस्पतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वनस्पतिकायिक जीव की हिंसा का दुष्परिणाम ही है कि आज भूमि क्षरण तथा भूस्खलन और ऑक्सीजन नष्ट हो रहा है। औषधीय जड़ी-बूटियों, कन्द-मूल, फल, अर्जुन की छाल, सर्पगन्धा, अश्वगन्धा आदि अनेक पदार्थों को संग्रहीत कर उसका व्यवसाय हो रहा है। वस्तुओं का व्यवसायीकरण हो जाने के कारण वन्य वस्तुओं के मूलस्रोत वन्य वनस्पतियाँ निरन्तर कम होती जा रही हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो० टी० एम० दास के अनुसार ५० वर्ष का एक वृक्ष अपने सम्पूर्ण जीवन काल में १५.७० लाख का परोक्ष/अपरोक्ष लाभ मानव जीवन को देता है। उनके अनुसार
१. कुल उत्पादित ऑक्सीजन का मूल्य २.५० लाख रुपये। २. वायु के परिष्करण का मूल्य ५.०० लाख रुपये। ३. जल के अवशोषण एवं नियंत्रण का मूल्य ३.०० लाख रुपये। ४. मिट्टी के परिरक्षण का मूल्य २.५० लाख रुपये। ५. पशु-पक्षियों के संरक्षण का मूल्य २.५० लाख रुपये। ६. प्रभुजिन (प्रोटिन का रूपांतर) का मूल्य ०.२० लाख रुपये।
जैव-विविधता संरक्षण के सन्दर्भ में भारतवर्ष में विलुप्तप्राय बाघों के लिए सन् १९७३ में 'प्रोजेक्ट टाइगर' नाम से प्रथम योजना बनी तथा जैव-विविधता संरक्षण के लिए पूरे देश में १३ जीवमंडल आरक्षित क्षेत्रों (१. नन्दा देवी, २. नोकरेक, ३. मनास, ४. डिबू सिकोवा, ५. डिहंग-डिबंग, ६. सुन्दरवन, ७. गल्फ
ऑव मनार, ८. नीलगिरि, ९. ग्रेट निकोबार, १०. हिमिलीपल, ११. खांडचेंड-जोंग (कंचनजंघा), १२. पंचमढ़ी तथा १३. अगस्थ्यामलाई) की स्थापना की गई। लेकिन ऐसा नहीं है कि प्राचीन काल में इस सन्दर्भ में कोई विचार न किया गया हो, बल्कि प्राचीन काल से ही हमारे मनीषियों ने जैव-संरक्षण को महत्त्व प्रदान किया है। यदि हम वैदिक ग्रन्थों को देखें तो वहाँ वन-देवता, वन-देवी आदि के आख्यान यत्र-तत्र दिखाई पड़ते हैं। इसी प्रकार जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी पर्यावरण संरक्षण की चर्चाएँ मिलती हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में वन सम्पदा के रख-रखाव और संरक्षण के प्रति प्रारम्भ से ही विशेष चेतना विद्यमान रही है। शास्त्रों में जैव-संरक्षण-चेतना का विवरण भी हमें मिलता है।
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