SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भास का प्राकृत प्रयोगजन्य दर्शन : ६९ समझी, इसी कारण भास आज के पोस्ट मॉडर्न लिट्रेचर' की संवेदनशीलता को प्रदर्शित करते प्रतीत होते हैं और प्राकृत-भाषा के प्रयोग के प्रति अपनी संवेदनशीलता दिखलाकर महाकवि भास, जैन तीर्थङ्करों की तरह 'ऑल्टरिटी सेन्सिटिव वैल्यू' को महत्त्व देते हुए प्रतीत होते हैं। __कविका कर्तृत्व उसकी रचनाओं की लोकप्रियता पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से महाकवि भास की रचनाएँ विश्वविख्यात हैं। भारतीय विद्वानों के साथ-साथ पाश्चात्य विद्वानों ने भी भास की नाट्यकला की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। प्राचीन काल में लिखे जाने के कारण भास की रचनाएँ व्याकरणादि एवं नाट्यशास्त्र के नियमों की श्रृंखला से मुक्त है। नाट्यकला में निष्णात होने का प्रमाण इनके नाटकों की अधिकता एवं अभिनेयता ही है। उपलब्ध आदिनाट्यकार होने के कारणसंस्कृत-जगत् में एकाङ्की रूपकों के प्रणयन करने का श्रेय महाकवि भास को ही प्राप्त है। नाट्यकार ने जिन सीमित घटनाओं को उठाया है, उनका निर्वाह बड़ी कुशलता के साथ किया है। बहुत से विषयों की सूचना कथोपकथनों के द्वारा दी गयी है। महाभारत आश्रित पाँचों एकाङ्की रूपक अनूठी कल्पना सेमण्डित हैं, जिनके नाम इस प्रकार है- 'उरुभङ्गम्', 'दूतवाक्यम्', 'दुतघटोत्कचम्', 'कर्णभारम्' और 'मध्यमव्यायोगः।' भासकृत रूपकों की शैली सरल है, किन्तु कालिदास जैसी स्निग्धता. (Polish) नहीं है। भास की जो त्रुटियाँ दिखायी पड़ती हैं, वे उनकी कला की न्यूनता की सूचिका नहीं है, प्रत्युत् परम्परा के व्यामोह के कारण वे त्रुटियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। कालान्विति के निर्वाह का अभाव, एक ऐसी त्रुटि है, जिसे हम कालगत न्यूनता मान सकते हैं लेकिन अनेक गुणों के रहते हुए यह न्यूनता उसी प्रकार गुण के रूप में परिवर्तित हो जाती है, जिस प्रकार गन्दे नालों का जल परम पतित पावनी मन्दाकिनी में मिलकर गंगाजल का रूप ग्रहण कर लेता है। भास के रूपक संस्कृत नाट्यकला के उस स्वस्थ युग के सूचक हैं, जब रंगमंच, नाट्य और नाट्यकार एक-दूसरे के परिपोषक एवं परिपूरक थे। उनके सभी रूपक आज भी रंगमंच पर सफलतापूर्वक मंचित किये जा सकते हैं। भास के नाटकों की संख्या तथा उनके वर्ण्य-विषय की अनेकरूपता से स्पष्ट द्योतित होता है कि कवि की प्रतिभा कितनी मौलिक थी तथा उनका मस्तिष्क कितना विमर्श परायण था। भास के रूपकों में विनूतन कल्पनाएँ हैं। इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यपरक विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि महाकवि भास ने अपनी रचनाओं में प्राकृत के शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया है, साथ ही हमें यह मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिए कि आज से ५वीं -४ थी शती ई० पू० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy