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________________ श्रमण, वर्ष५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ जैन चिन्तन में संपोष्य विकास की अवधारणा डॉ० पंकज कुमार शुक्ल* डॉ. नागेन्द्र नाथ मिश्र** संपोष्य विकास की अवधारणा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उस समय अस्तित्व में आयी जब संसार का प्रत्येक जीवित सदस्य अपने अस्तित्व के विषय में चिन्तित हुआ। विशेष रूप से मानव,जिसमें ज्ञान और विज्ञान का प्रवाह है, विकास के बढ़ते दुष्प्रभाव से चिन्तित हुआ। उसे महसूस हुआ कि वह निरन्तर समस्याओं का गट्ठर बनता जा रहा है। वह पर्यावरणीय समस्या जैसे- ओजोन परत में बढ़ता छिद्र, तेजाबी वर्षा, ग्रीन हाउस इफेक्ट, शुद्ध जल एवं वायु की समस्या, जंगलों का सफाया; सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या जैसे- अलगावपन, असुरक्षा की भावना, धर विहीन मानस, नशाबद्ध संस्कृति, हिंसा, आतंकी गतिविधि; नैतिक व मूल्यपरक समस्या जैसे - चारित्रिक ह्रास, संवेदना का ह्रास, नैतिक मूल्यों से विलगाव इत्यादि से व्यथित था। इन समस्याओं ने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक चेतनाओं को सोचने पर मजबूर किया कि विकास (Development) का सही स्वरूप क्या हो? जिससे मानव जाति का अस्तित्व बना रहे। संपोष्य विकास अथवा विकास की धारणा ही एक ऐसे मूल्य और जीवन दर्शन के रूप में अस्तित्व में आयी जिससे लोगों ने राहत महसूस की। वस्तुतः संपोष्य विकास की धारणा १९८७ में अस्तित्व में आयी। 'World Commission on Environment and Development' के द्वारा विकास पर एक सामान्य चर्चा करायी गयी और 'Our Common Future' नाम से एक रिपोर्ट तैयार की गयी। इसमें बताया गया कि संपोष्य विकास एक वैकल्पिक विकास की धारणा है। इस आयोग द्वारा इसे परिभाषित करते हुए कहा गया कि 'यह ऐसा विकास है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकता की पूर्ति, भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं और उनकी मांगों की पूर्ति वह बिना किसी प्रयोग के करेगा।' अर्थात् यह ऐसा विकास होगा जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति इस तरह करे कि आने वाली पीढ़ियों को भी विरासत में कुछ दिया जा सके। यू०एन०डी०पी० (१९९४) के रिपोर्ट * प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास रामदेवपी०जी० कालेज, जंगीगंज, संतरविदास नगर, भदोही ** प्रवक्ता, राजशास्त्र मड़ियाहूँ पी०जी० कालेज, मड़ियाहूँ, जौनपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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