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________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ में कहा गया कि 'यह वह विकास है जो न केवल आर्थिक संवृद्धि का पुर्नस्थान करता है; वरन् इसके लाभ का निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण वितरण भी करता है। यह जनता को अधिकार देता है कि वे अपनी जायज माँगों को प्राप्त करें। यह विकास में गरीबों को प्राथमिकता देता है। सामाजिक न्याय इसका आधार है। यह विकास प्रकृति - अनुकूल, स्त्री- अनुकूल एवं गरीबों और रोजगारानुकूल है। वस्तुतः इस विकास की धारणा में दो तथ्यों पर विशेष बल दिया गया है प्रथम मानव व प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करना और द्वितीय प्रकृति बनाम प्रगति के स्थान पर प्रकृति सापेक्ष प्रगति पर बल देना । इस तरह यदि विद्वानों की माने तो यह वह विकास है जो मानव जीवन की उत्तमत्ता को बिना पर्यावरण को हानि पहुँचाये बनाए रखता है। इस दृष्टि से यदि हम जैन चिन्तन परम्परा में संपोष्य विकास की अवधारणा का अवगाहन करते हैं तो पाते हैं कि महावीर स्वामी ने उपभोक्तावादी जीवन को त्याग कर एक ऐसे सम्यक् जीवन जीने पर बल दिया है जिसमें मानव-प्रकृति के मध्य कोई द्वन्द्व नहीं है और न ही प्रकृति बनाम प्रगति का द्वन्द्व है। जैन चिन्तन परम्परा के जानकारों की माने तो कभी भी विकास का रास्ता समस्याग्रस्त नहीं हो सकता । महावीर स्वामी ने लोगों को सहज, सरल एवं विज्ञान सम्मत रास्ता दिखलाया है और लोगों के अहिंसात्मक जीवन जीने पर बल दिया है। - जैन परम्परा भारतीय संस्कृति का एक अनोखा पड़ाव है जहाँ सहिष्णुता, समन्वय और सह-अस्तित्व के देदीप्यमान वातावरण में मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विकास को देखा जा सकता है। इस परम्परा में विकास का मार्ग निवृत्तिमार्गी है। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि जैन परम्परा में निवृत्तिमार्गी विकासवाद की संकल्पना का विकास हुआ है। जैन परम्परा 'जिन' के अनुयायियों का धर्म है। 'जिन' का अर्थ है आध्यात्मिक विजय प्राप्त करने वाला, अर्थात् जिसने अपनी इन्द्रियों, वासनाओं तथा समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है। इसका तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा में भौतिक विकास को निम्नकोटि का विकास माना गया है। यहाँ तक कि उसे दुःखमूलक माना जाता है।' इस परम्परा के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व निवृत्ति और आत्यन्तिक सुख त्याग में निहित है ।" इस दृष्टि से जैन परम्परा में विकास का आधार उपनिषदीय मान्यता के सदृश 'त्याग की संस्कृति' को माना गया है। त्याग की संस्कृति के साथ अहिंसा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। Jain Education International संपोष्य विकास की परिभाषा में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि अर्थोपार्जन करना ही उपयुक्त नहीं है, बल्कि उसका समान वितरण किया जाना आवश्यक है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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