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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अक४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ देहात्मवाद डॉ० विजय कुमार* देहात्मवाद का विवेचन भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही दर्शनों में देखने को मिलता है। बहुत कम ही ऐसे दार्शनिक होंगे जिन्होंने देह और आत्मा के सम्बन्धों पर विचार न किया हो। चाहे वैदिक, जैन और बौद्ध परम्पराएँ हों या पाश्चात्य बुद्धिवादी दार्शनिक। सभी ने किसी न किसी रूप में देह और आत्मा के सम्बन्धों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। भारतीय सन्दर्भ में जो व्याख्या मिलती है उसमें 'देह ही आत्मा है' केन्द्रित है जबकि पाश्चात्य चिन्तन में 'देह और आत्मा के सम्बन्ध' को केन्द्रित किया गया है। देहात्म की समस्या के सन्दर्भ में जो प्राय: प्रश्न उठाये जाते हैं वे हैं- देह और आत्मा का सम्बन्ध क्या है, क्या आत्मा भिन्न है और देह भिन्न है अथवा आत्मा वही है जो देह है? इस सम्बन्ध में भारतीय सन्दर्भ में तीन प्रकार के मत देखने को मिलते हैं १. पहला मत यह है कि देह और आत्मा अभिन्न हैं, अर्थात् देह ही आत्मा है। इसके अन्तर्गत लोकायत मत आता है। २. दूसरा मत यह है कि देह और आत्मा दोनों अलग-अलग हैं। इस मत को माननेवालों में न्याय दर्शन तथा वेदान्ती आदि आते हैं। ३. तीसरा मत यह है कि देह और आत्मा अलग-अलग भी हैं और साथसाथ भी हैं। इस मत का पोषण जैन दर्शन करता है। चार्वाक दर्शन की यह स्पष्ट घोषणा है कि देह ही आत्मा है। 'मैं' शब्द से सम्बोधित होने वाला यह शरीर ही आत्मा है। “मैं मोटा हूँ', 'मैं दुबला हूँ , 'मैं गोरा हैं आदि सम्बोधन शरीर के लिए ही किये जाते हैं। 'चार्वाक षष्टि से भी इस कथन को समर्थन प्राप्त होता है। कहा गया है* प्राध्यापक, पार्थनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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