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________________ १० : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४/अक्टूबर-दिसम्बर २००८ अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामान्याधिकरण्यतः । देहः स्थौल्यादि योगाच्च स एवात्मा न चापरः । मम देोयमित्युक्तिः सम्भवेदौपचारिकी ।। ४९ ।। (अर्थात् मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ, इस प्रकार एक आधार होने के कारण तथा एक मोटाई आदि के संयोग होने के कारण देह आत्मा है, आत्मा कोई दूसरी नहीं है। यह मेरा शरीर इस प्रकार की युक्ति तो औपचारिक है ।) यह सत्य भी है, क्योंकि जब भी व्यक्ति स्वयं के विषय में जानने, कुछ करने या भोगने का अनुभव करता है तो शरीर में ही करता है। साथ ही दूसरे व्यक्तियों को भी जब भी जानते, करते और भोगते देखता है, तो शरीर में ही देखता है। फिर कैसे कहा जा सकता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है । चार्वाक का कहना है कि जिसे हम चेतना कहते हैं वह वस्तुतः चार भूतों के संयोग से उत्पन्न होती है। यद्यपि अलगअलग भूतों में चेतना शक्ति नहीं होती, लेकिन उन भूत तत्त्वों के संयोग शक्ति से चेतना उत्पन्न हो जाती है, जो संयोग शक्ति की विलक्षणता ही कही जायेगी। जैसे गुड़ और पिष्टि आदि में मादकता की शक्ति नहीं होती है परन्तु उनके संयोग से निर्मित मदिरा में मादकता उत्पन्न हो जाती है। 'चार्वाक षष्टि' में कहा गया है अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्युनलानिलाः । चतुर्भ्यः खलु भूतेभ्यञ्चैतन्यमुपजायते । किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्योमदशक्तिवत् ।।४८ ।। २ अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्रि एवं वायु ये चार तत्त्व हैं। निश्चय ही इन्हीं चार तत्त्वों के संयोग से चैतन्य की उत्पत्ति होती है, जैसे किण्व ( मदिरा के निर्माण में खमीर उठाने वाला बीज) आदि द्रव्य से मादकता उत्पन्न होती है। आकाश को चार्वाक तत्त्व रूप में स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु- इन्हीं चारों तत्त्वों के शरीर रूप में परिवर्तन होने पर परिणाम विशेष के स्वभाव से चैतन्य की उत्पत्ति होती है। शरीर के नष्ट होने पर चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। तात्पर्य है ऐसी कोई सत्ता नहीं है जिसे शरीर से अलग माना जाए या जिसके कारण शरीर चेतन हो जाता है। जो लोग प्राण, चेष्टा, चेतनता, स्मृति आदि को अलग आत्मा का धर्म मानते हैं, वे भी तो इसे देह में ही स्वीकार करते हैं। इनको देह से अलग आत्मा का धर्म मानने के लिए ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है जो इसे प्रामाणित कर सके। अतः आत्मा देह का ही नाम है। यदि हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525066
Book TitleSramana 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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