________________
श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८
भ्रमण करने की परम्परा बौद्ध एवं जैन धर्म की नितान्त मौलिक सोच थी। यदि भारतीय संस्कृति के विचार प्रवाह पर दृष्टिपात किया जाय तो ऐतरेयब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में पाँच श्लोकों के माध्यम से भ्रमण एवं पर्यटन की महिमा का ख्यापन करते हुए 'चरैवेति-चरैवेति' अर्थात् अगर जीवन को सार्थक बनाना है तो 'चलते रहो - चलते रहो' का शाश्वत सन्देश दिया गया है। इस प्रकरण में पर्यटन की आवश्यकता, पर्यटन के लाभ आदि पक्षों पर भी सविस्तार विचार किया गया है तथा इसकी बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति की गयी है, लेकिन श्रमण परम्परा तक आते-आते यह भ्रमण एवं पर्यटन लोकोपकारक एवं सांस्कृतिक समरसता का संवाहक बन गया, श्रमण संस्कृति का वस्तुतः विलक्षण अवदान है।
७४
:
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 'इदं न मम' की जिस निष्काम भावना से अनुप्राणित ऋषियों ने यज्ञ परम्परा किंवा लोकोपकारी कर्म परम्परा की स्थापना की थी उसका स्वर्णिम पक्ष ज्ञानयज्ञ के रूप में श्रमण परम्परा में ही प्राप्त हो सका। फलत: एक उदात्त सांस्कृतिक भावना का सम्पोषण हुआ । भारतीय सांस्कृतिक यात्रा में श्रमण -संस्कृति का यह अवदान युग-युगों तक याद किया जाता रहेगा।
सन्दर्भ :
१. विनयपिटक महावग्ग - १.१०.३२.
२. इतिवृत्तक - २. २.९ ३. अंगुत्तर निकाय ३-७१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org