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________________ ७२ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ इस दृष्टि से जब बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के साथ ही प्राचीन वैदिक धर्म पर दृष्टिपात किया जाता है तो स्पष्ट होता है कि इन धर्मों का अस्तित्व वैदिक धर्म के विरोध में नहीं, अपितु वैदिक धर्म की विकृतियों के विरोध में आया था। वेदों का उद्घोष था 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' अर्थात् एक वरेण्य श्रेष्ठ सभ्यता एवं संस्कृति का विकास। 'संगच्छध्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्' की एक व्यापक मानवीय भावना का विस्तार वैदिक ऋषियों ने सोचा भी था। समाज को त्यागमय वृत्ति से जोड़ने के लिए उन्होंने निर्देश दिया था। ‘शत हस्तः समाहर सहस्त्र हस्त: सीकर' अर्थात् सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो लेकिन हजारों हाथों से बाँटो' ! 'सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै' की एक उदात्त भावना औपनिषदिक शान्तिपाठ में अनुप्राणित थी। लेकिन दुर्भाग्यवश काल पश्चात् ये सारी भावनाएँ तथाकथित विद्वानों, ब्राह्मणों एवं बुद्धिजीवियों के हाथों कैद हो गईं। बौद्धिक प्रदूषण ने समाज में वर्चस्व बनाकर इस वैदिक आर्षज्ञान को वैदिक कर्मकाण्ड एवं तत्सम्बन्धी पाखण्डों में जकड़ दिया। फलत: मूल मानव धर्म का ही क्षरण होने लगा तथा भारतीय समाज भी इन विकृतियों का ग्रास बन गया। ऐसी ही अपसंस्कृति के काल में आशा की किरण के रूप में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का अभ्युदय हुआ। वैदिक यज्ञ के स्थान पर ज्ञानयज्ञ का काल आया। गौतम बुद्ध ने कहा - ब्राह्मण, मैं समिधा नहीं जलाता, हृदय की ज्योति जलाता हूँ। वह प्रतिक्षण जलती रहती है और इस प्रकार सद्ज्ञान एवं संस्कृति से उपेक्षित जन समुदाय को अपने ज्ञानोपदेशं एवं आचरण द्वारा स्वतःस्फूर्त चेतना से समन्वित करते हुए प्रेरित किया - 'अप्प दीपो भव' अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो, अपनी अभ्युदय राह का निर्माण करो। इस प्रकार सांस्कृतिक संचेतना एवं सांस्कृतिक उत्थान के एक नवीन युग का उन्मेष बौद्ध धर्म एवं जैनधर्म के तत्त्वावधान में श्रमण संस्कृति' के रूप में हुआ। इस सांस्कृतिक यात्रा में 'भ्रमण' एवं 'श्रमण' का बड़ा ही अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जहाँ वैदिक धर्म में 'प्रामेण देवमनयः स्वविमुक्ति कामाः, मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा' के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति मात्र आत्मचिन्तन तक सिमट चुका था वहीं श्रमण संस्कृति ने अपना चिन्तन-विस्तार जन-जन तक कर दिया। गौतम बुद्ध का स्पष्ट आदेश था : चरस्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय, अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' अर्थात् हे ! भिक्षुओं बहुजनों के हित के लिए बहुजनों के सुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए, देव और मनुष्यों के सुख और हित के लिए परिचरण करते रहो। जैन धर्म में भी जब तीन प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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