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६८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
व्यक्ति को यह चयनित करने की स्वतंत्रता देता है कि वह अपने में निहित जीव के स्वभावत: अनन्त स्वरूप को अपने प्रयासों द्वारा अपने जीवन काल में ही प्राप्त कर ले अथवा नहीं। यह निश्चित रूप से उसी तरह की अवधारणा है जहाँ धरती पर स्वर्ग को उतार देने की परिकल्पना निहित है। सत्प्रयासों को सर्वजन सुलभ रूप में उतारने की आचारमीमांसा, मेरी समझ में जैन धर्म-दर्शन से अन्यत्र शायद ही सुलभ हो। उदारवादी धर्म-मीमांसा
जैन परम्परा में 'धर्म' व 'अधर्म' शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया गया है। ये दोनों शब्द क्रमश: 'गति' और 'स्थिति के बोधक हैं। धर्म-मीमांसा का धर्म शब्द 'रिलीजन' शब्द के अर्थ अर्थात् 'रिलीजेयर' या बांधने या धारण करने के अर्थ में सम्पन्न है। जैन धर्म अनीश्वरवादी धर्म है। यहाँ ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व को मान्यता प्राप्त नहीं है। ईश्वर के अस्तित्व का विरोध करते हुए यहाँ यह माना गया है कि ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि न तो प्रत्यक्ष से और न ही अनुमान से हो सकती है। ईश्वर के लिए जो गुण कल्पित हैं वे युक्तिपूर्ण नहीं हैं। जैन धर्म-दर्शन ईश्वर की नहीं, प्रत्युत् तीर्थंकरों को ही ईश्वर के रूप में अभिहित करता है। इसके अनुसार ये ही मार्ग-प्रदर्शन तथा अंत:प्रेरणा प्रदान करते हैं तथा धर्मपरायण जैनों के लिए उपासना योग्य हैं। इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वरीय भाव को यहाँ धार्मिक भावना की प्रचुरता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जैन मतावलम्बियों की इस धार्मिक भावना में स्वावलंबन, आत्मनिष्ठा तथा सर्वनिष्ठा के कारण उदारवादी भाव का आना सर्वथा स्वाभाविक ही है। ईश्वर के प्रति अविश्वास रहने पर भी जैनों में न तो धर्मोत्साह की कमी है और न धार्मिक क्रियाओं में शिथिलता ही है। तीर्थंकरों के सदणों का निरंतर ध्यान करते रहने से वे इस बात का स्मरण करते रहते हैं कि वे भी उनकी तरह सिद्ध और मुक्त हो सकते हैं। तीर्थंकर चरित्र का बराबर चिंतन करते रहने से वे अपने आप को भी पवित्र करते हैं और मोक्ष-प्राप्ति के लिए अपने को सुदृढ़ बनाते हैं। जैनों के लिए पूजा-वंदना का उद्देश्य करुणा प्राप्ति नहीं है, उन्हें तो कर्मवाद जैसी अलंध्य व्यवस्था में विश्वास है जिसमें दूसरे के लिए करुणा का कोई स्थान नहीं है। पूर्वजन्म के कर्मों का नाश, विचार, वचन और कर्मों की समुन्नति तथा कल्याण की प्राप्ति अपने ही कर्मों के द्वारा हो सकती है। तीर्थंकर तो मार्ग-प्रदर्शन के लिए केवल आदर्श का काम करते हैं। जैन धर्म केवल उन पुरुषों के लिए है जो वीर और दृढ़चित्त हैं। इसका मूल-मंत्र मानों स्वावलम्बन है, अतः जैन धर्म में मुक्त आत्मा को 'जिन' और 'वीर' कहा जाता है। यहाँ जैन धर्म-मीमांसा अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद में स्वीकृत तथ्य 'मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधायक होता है' की पूर्वगामी प्रतीत होती है।
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