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उदारवादी जैन धर्म-दर्शन : एक विवेचन :
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जहाँ तक दार्शनिक दृष्टि का प्रश्न है, जैन मत वस्तुवादी तथा बहुसत्तावादी है। अपने द्रव्य विचार के विवेचन में ये सभी द्रव्यों की सत्यता में विश्वास करता है। जीव-अजीव इसके उदाहरण हैं। अहिंसा का जैन धर्म-दर्शन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो मन, वचन और कर्म से जैन समर्थकों के अहिंसक होने का प्रमाण देता है। जहाँ तक अन्य मतों एवं अन्य धर्मों की बात है, यह सबके प्रति समादर का भाव प्रकट करता है। वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता तथा कोई भी विचार निरपेक्ष सत्य का प्रतिपादन नहीं करता और एक ही वस्तु के सम्बन्ध में दृष्टि, अवस्था, प्रसंग आदि भेदों के कारण भिन्न-भिन्न विचार की सत्यता की मान्यता (स्याद्वाद) यह सिद्ध करतो है कि प्रत्येक विचार एवं व्यवहार अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य है। जैन धर्म-दर्शन के ये पक्ष इनके सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पहलुओं को अतिमहत्त्वपूर्ण, सर्वसमावेशी तथा उदारता के धरातल पर अवस्थित कर देते हैं। धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में इनकी लोकप्रियता तथा तर्कसंगतता प्रसिद्ध है। इनके द्वारा प्रतिपादित सद्गुण, परोपकारिता, परार्थ तथा शुभचिन्ता की अवधारणाएँ भावात्मक स्वीकरण योग्य हैं।
वर्तमान जीवन में जैन सिद्धान्तों को सहज प्राकृतिक रूप में अपनाने के प्रति उदासीनता देखी जाती है। इसका एकमात्र कारण मनुष्य के अंदर अनियंत्रित पाशविक प्रवृतियाँ और उनकी बढ़ती इच्छाशक्ति है जिसकी छाया में निरंतर बढ़ते विवेकीकरण के भाव का विच्छेद हो रहा है। समाज एवं संस्कृति में गिरावट एवं अधोमुखी सभ्यता का भी मूल कारण यही है। भेद-अभेद मन की उपज है जिसकी अभिव्यक्ति व्यवहार के माध्यम से होती है। आस्था की भिन्नता, स्वार्थपरकता, धर्म के क्षेत्र में पलने वाले मेरा धर्म, मेरी साधना की जन्मस्थली भी यही है। हिंसा, असहिष्णुता, हठधर्मिता की बढ़त धर्म को कृत्रिम बना देते हैं। इस प्रकार विचार, भाव एवं व्यवहार में लिपटे संघर्ष के समाधान का एकमात्र उपाय उदारवादी साक्षी-दृष्टि या तंत्र के रूप में मूल्यों की पहचान तथा अभियोग्यता और सबसे परे दाता एवं प्रापक की नैतिक गरिमा की पुनःस्थापना में निहित है। जैन धर्म-दर्शन इन सारी कसौटियों पर खरा उतरता है। वर्तमान में व्याप्त समस्या के समाधान हेतु जैनाचार्यों ने सामाजिक विभेद के लिए समत्व-भाव की साधना, वैचारिक मतभेद के पर्यवसान के लिए अनेकान्त-दृष्टि
और विचार, संकल्प तथा आचार में अहिंसा-तंत्र को अपनाया है। अत: जैन धर्मदर्शन द्वारा अपनाये गए सहज सुलभ कला-तंत्र जहाँ विचार की अनुग्राहिता, उदारवादिता तथा आदरपूर्ण विरोध की दृष्टि पर जोर देते हैं, वहीं इसे पूर्णता के विज्ञानी धर्म तथा पूर्णता के लक्ष्य की सिद्धि के प्रवाही धर्म-दर्शन के रूप में अवस्थित करते प्रतीत होते हैं।
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