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________________ उदारवादी जैन धर्म-दर्शन : एक विवेचन : ६७ की अंतर्निहित प्रवृतियों के द्वारा ही मानों शरीर का निर्माण होता है अर्थात् जीव अपने कर्मों या संस्कारों के वशीभूत हो कर ही शरीर धारण करता है । वासनाएँ पुगल को जीव की ओर आकृष्ट करती हैं। जीव शरीर का निमित्त कारण है और पुद्गल उपादान कारण शरीर से मन, इन्द्रिय तथा प्राण का भी बोध होता है जिसके कारण जीव के स्वाभाविक गुण अभिभूत होते हैं। इस प्रकार शारीरिक विशेषताएँ कर्मजनित होती है। कर्म-पुल एवं उसके आश्रय से दो प्रकार के बंधन उत्पन्न होते हैं- जिन्हें भावबन्ध एवं द्रव्यबन्ध कहते हैं। जब पुद्गल का जीव के साथ सम्बन्ध होता है तब जीव बन्धन में आ जाता है। अतः पुद्गल विनाश ही मोक्ष है। में पुल का आश्रव जीव की अंतर्निहित कषायों के कारण होता है और कषायों का कारण अज्ञान है। ज्ञान ही अज्ञान को दूर करता है। अज्ञान को दूर करने हेतु त्रिरत्न दर्शन की प्रस्तुति की गयी है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने कहा हैसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । १४ अर्थात् यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है तथा कर्मों के नाश और तत्त्वों के सविशेष ज्ञान से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है तो सम्यग्ज्ञान से प्राप्त सम्यक् चारित्र का अर्थ अहित कार्यों का वर्जन और हित कार्यों का आचरण है। यहाँ उमास्वाति केवलज्ञान के लिए कर्मों के पूर्ण विनाश की प्रतिष्ठा करते हैं। इस क्रम में जैन चिंतक नये कर्मों को रोकने के लिए तथा पुराने कर्मों को नष्ट करने के लिए पंचमहाव्रत, यथा- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की चर्चा करते हैं। इस संदर्भ में यह विचारणीय है कि जैन के साथ-साथ अन्य धर्मों में भी पंचमहाव्रत को स्वीकृति मिली है या नहीं? किसी न किसी रूप में स्वीकृति तो मिली है, किन्तु जैन दार्शनिक इसे संकल्प के साथ मन, वचन एवं कर्म तीनों से इनकी प्रतिस्थापना जीवन में करने पर जितना बल देते हैं स्यात् अन्य धर्मों में उतना बल नहीं दिया गया है। दर्शन, ज्ञान, और चारित्र की पूर्णता होने पर जीव मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। चूँकि मोक्ष में पुद्गल जनित बाधाओं से मुक्त होकर जीव अपने यथार्थ स्वरूप को पुनः पहचान लेता है जिससे अनंत चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, और अनंत सुख (आनन्द) की प्राप्ति हो जाती है, इसलिए मोक्ष प्राप्त जीव वस्तुतः प्राप्तस्य प्राप्ति की अवस्था को प्राप्त करता है, किसी नई अवस्था को प्राप्त नहीं करता है। हाँ ! इतना अवश्य है कि जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचारमीमांसा में दो बातें बड़े ही महत्त्व की हैं- पहला 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग और दूसरे 'अनंत चतुष्टय' । इन दोनों से ऐसा लगता है कि जैन आचारमीमांसा जहाँ एक ओर सर्वजन सुलभ है, वहीं इसमें विवेचित अभिबोध मोक्ष को सामान्य मानवीय धरातल पर लाकर प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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