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६४ :: श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८
यह सोचता कि उसका मत भी किसी दृष्टि-भेद पर निर्भर है तो दार्शनिक विचार में मतभेद होने की संभावना नहीं रहती । स्याद्वाद इसी दार्शनिक मतभेद को दूर करता है। यह अपने अंतर्गत सभी संभावित सत्यों को संग्रहीत करता है।
जैन चिन्तक ज्ञान की संभावना की सत्यता में विश्वास करते हैं तथा ज्ञान की भाँति निष्पक्ष और स्वच्छ हृदय से सत्यानुसंधान पर जोर देते हुए कहते हैं कि इस आधार पर किसी भी ज्ञान की सिद्धि हो सकती है। यहाँ अंधविश्वास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक हरिभद्र ने इसे परिपुष्ट करते हुए ही कहा है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । । ७
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें भिन्न-भिन्न विचारों में प्रकट किए गए सत्य वचन ही ग्राह्य हैं। हरिभद्र की यह उक्ति जैन ज्ञानमीमांसा को व्यापक, तर्कसम्मत, सुनम्य और विभिन्न दर्शनग्राही बना देती है।
उदारवादी तत्त्वमीमांसा
जैन तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा के बीच गहन सम्बन्ध है। ज्ञान- प्रक्रिया के विश्लेषण को अस्तित्व की अभिवृति से पूर्णत: अलग नहीं किया जा सकता। जैसा कि समकालीन पाश्चात्य विचारक आर० एफ० ओनियल' का विचार है। जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध का निर्वाह शताब्दियों पहले से ही करते आ रहे हैं और ऐसा कर उन्होंने अपनी ज्ञानमीमांसा की तरह ही अपनी तत्त्वमीमांसा को भी उदारवादी बना रखा है। जैन तत्त्वमीमांसा मुख्य रूप से द्रव्य की तत्त्वमीमांसा है, जहाँ वे मानते हैं कि सभी वस्तुएँ द्रव्यस्वरूप हैं । यहाँ तक की गति, स्थिति, दिक् तथा काल भी द्रव्य ही हैं।
धर्म किसी धर्मी का होता है। जिसका धर्म होता है वह धर्मी है और धर्मी में जो लक्षण पाया जाता है वह धर्म है। धर्मी को द्रव्य के नाम से भी जाना जाता है। जैन विचारकों ने प्रत्येक वस्तु में दो प्रकार के धर्म को स्वीकार किया है। कुछ धर्म ऐसे होते हैं जो उस वस्तु के रूप, स्थिति आदि के परिचायक होते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो अन्य वस्तुओं के साथ उसके पार्थक्य को सूचित करते हैं। प्रथम प्रकार के धर्म भावात्मक हैं जिसे जैन दार्शनिक स्व-पर्याय कहते हैं और दूसरे प्रकार के धर्म अभावात्मक हैं जिन्हें पर-पर्याय कहते हैं। काल के अनुसार वस्तु के धर्मों में परिवर्तन होता रहता है और उसमें नए-नए धर्मों की उत्पति होती रहती है। लेकिन वस्तु के अनन्त धर्मों का पूर्ण ज्ञान मात्र केवली या सर्वज्ञ पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं। जो द्रव्य में सदा वर्तमान रहते है वे स्वरूप धर्म कहलाते हैं तथा जो आते-जाते रहते है वे आगंतुक धर्म कहलाते हैं।
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