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________________ उदारवादी जैन धर्म-दर्शन : एक विवेचन : ६५ जैन तत्त्वमीमांसा संसार को एक दृष्टि से नित्य तथा दूसरी दृष्टि से अनित्य स्वीकारती है। एक दृष्टि से संसार की नित्यता ठीक है, किन्तु दूसरी दृष्टि से इसका परिवर्तन भी ठीक है। स्याद्वाद की मान्यता के कारण यहाँ विरोध की संभावना नहीं रह जाती है। द्रव्य सत् है तथा उत्पत्ति, स्थिति और व्यय इसके तीन लक्षण हैं। जैन विचारकों को बौद्ध का क्षणिकवाद स्वीकार्य नहीं है। वे बौद्ध-दर्शन के क्षणिकवाद और अद्वैतवेदांत के नित्यवाद को एकांगी व एकांतवादी समझते हैं। क्योंकि अद्वैतवादी परिवर्तन को माया समझते हैं और केवल ब्रह्म को ही सत्य एवं नित्य मानते हैं। जैन दार्शनिक समस्त द्रव्यों को दो भागों में विभक्त करते हैं- अस्तिकाय तथा अनस्तिकाय। अस्तिकाय के भी दो प्रकार हैं- जीव और अजीव। जीव आत्मा का ही दूसरा नाम है। जीव भी दो प्रकार के होते हैं-मुक्त और बद्ध। चेतन द्रव्य को ही जैन दार्शनिक आत्मा या जीव कहते हैं। मात्रा-भेद के अनुसार जीवों में एक तारतम्यता है जिसमें सिद्ध आत्माओं का स्थान सबसे ऊँचा है। सिद्ध वे हैं जो कर्मों पर विजय पा लेते हैं और पूर्णज्ञानी हो जाते हैं। सबसे निम्न स्थान में ऐसे एकेन्द्रिय जीव हैं जो क्षिति, जल, अग्नि, वायु या वनस्पति में वास करते हैं। जीव ही ज्ञान प्राप्त करता है। वही कर्म भी करता है। सुख-दुःख भी वही भोगता है। वह नित्य है, किन्तु उसकी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। वह सर्वव्यापी नहीं, बल्कि उसकी व्यापकता शरीर तक ही सीमित है। यहाँ पाश्चात्य दार्शनिक डेकाटें के विचारों से जैन दार्शनिकों के विचार में अंतर को देखा जा सकता है। जड़ द्रव्य और आत्मा के विस्तार में निहित भेद को स्पष्ट करते हुए जैन दार्शनिक बतलाते हैं कि जिस स्थान में जब तक कोई जड़द्रव्य है, तब तक वहाँ दूसरा कोई जड़-द्रव्य प्रवेश नहीं कर सकता। किन्तु जिस स्थान में एक आत्मा है, वहाँ दूसरी आत्मा का सन्निवेश हो सकता है। आत्मा आलोक की तरह किसी स्थान में चैतन्य रूप में व्याप्त रहती है। आत्मा के गुणों को देखकर ही हम आत्मा की प्रत्याक्षानुभूति करते हैं। सुख, दुःख, स्मृति, संकल्प, संदेह, ज्ञान आदि धर्मों के अनुभव होने से ही आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। जीवों का निवास स्थान यह जगत है जो जड़ द्रव्यों से बना हुआ है। जैन दर्शन में जड़-तत्त्व को पुद्गल कहा गया है। पुद्गल का अर्थ है- जिसका संयोग और विभाग हो सके। पुदल के सबसे छोटे भाग को जिसका और विभाग नहीं हो सकता है- 'अणु' कहते हैं। दो या दो से अधिक अणुओं के संयोग से 'संघात' या 'स्कंध' बनता है। शरीर और अन्य जड़द्रव्य अणुओं के संयोग से ही बने संघात हैं। मन, वचन तथा प्राण जड़-तत्त्वों से ही निर्मित हैं। जैन स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण के रूप में पुद्गल के चार गुणों को स्वीकार करते हैं। गुण अणुओं तथा संघातों में भी पाए जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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