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उदारवादी जैन धर्म-दर्शन : एक विवेचन :
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साक्षात ज्ञान पूर्व वर्णित पंचज्ञान में से अंतिम तीन को कहा गया है। वस्तुतः ये तीन ही साक्षात ज्ञान के प्रदायक हैं। प्रत्यक्ष इन्द्रिय वस्तुतः साक्षात नहीं होते, बल्कि मन और इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए इन्हें व्यावहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी जाती है। प्रत्येक जैन ग्रन्थों में इनका विवेचन ज्ञानमीमांसा के क्रम में देखा जाता है, जहाँ जैन दार्शनिक अनुमान की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं।
परामर्श सम्बन्धी मत जैन ज्ञानमीमांसा का महत्त्वपूर्ण अंग है। इस क्रम में वे, सप्तभंगी नय आदि का विवेचन करते हैं। वे मानते हैं कि एक परामर्श से वस्तु के एक ही धर्म का बोध होता है। सभी दर्शन अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं। सप्तभंगी, जिसे सात प्रकार के परामर्श से विभूषित किया जाता है, की विवेचना वस्तुवादी तथा व्यवहारवादी पाश्चात्य दर्शनों के समीप लाकर इन्हें पाश्चात्य विचारों के पूर्वगामी दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करता है। जैन ज्ञानमीमांसा सापेक्षवादी है जिसे लोगों ने वस्तुवादी सापेक्षवाद कहा है। इस दृष्टि से जैन मत पाश्चात्य दार्शनिक प्रोटागोरस, बर्कले, व्हाइटहेड तथा गुडिन के विचारों का पूर्वगामी दिखता है। स्यादवादी होने के कारण जैन ज्ञानमीमांसा पर संशयवाद का भी आरोप लगता रहा है। यथार्थ में जैन-दर्शन संशयवादी नहीं है। 'स्यात्' शब्द के प्रयोग से किसी वाक्य में उसकी असत्यता या संदिग्धता का बोध नहीं कराया जाता, बल्कि उसकी सापेक्षता का संकेत किया जाता है। अपेक्षादृष्टि ही स्यात् का मूल है। परिस्थिति तथा विचार-प्रसंग के अनुसार परामर्श अवश्य ही सत्य होता है-इसे दार्शनिक स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं। अत: स्याद्वाद को संशयवाद समझना अनुचित है।
ज्ञानमीमांसा के विभिन्न पक्षों के संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान के स्वरूप एवं प्रकार को लेकर जैन दर्शन का दृष्टिकोण उदारवादी है। जैन विचारक अन्य सभी विचारों को भी उनकी अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य मानते हैं। यदि विश्व दर्शन में विचार किए गए विभिन्न दृष्टियों को अथवा विभिन्न दृष्टियों से विचार किए गए दार्शनिक विधाओं को समझने का प्रयास किया जाए तो लगता है कि दृष्टि-भेद एकान्तता ही मतभेद का कारण है। दृष्टि विशेष के क्रम में सभी अपने-अपने विचारों को रखते हैं और उनकी अपनी दृष्टि में उनका मत युक्तिसंगत ही होता है। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में हमारा जो निर्णय होता है, वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। उसकी सत्यता विशेष परिस्थिति एवं विशेष दृष्टि से ही मानी जा सकती है। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वह अपने विचारों को ही नितान्त सत्य मानने लगते हैं तथा दूसरों के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विभिन्न दर्शनों में जो मतभेद पाये जाते हैं उनका कारण भी यही है कि प्रत्येक दर्शन अपने दृष्टिकोण को ठीक समझता है और दूसरे के दृष्टिकोण को मिथ्या बताकर उपेक्षा करता है। यदि प्रत्येक दार्शनिक
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