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________________ उदारवादी जैन धर्म-दर्शन : एक विवेचन : ६१ जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। इसकी अपनी स्वतंत्र और मौलिक दार्शनिक परम्परा है। इसे एक विशेष या संकीर्ण मत अथवा सम्प्रदाय के रूप में न तो देखा गया है और न देखा जा सकता है। इसमें रूढ़िवादिता का भी सर्वथा अभाव है और इसकी मान्यता पुरुषार्थमूलक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित है। वैचारिक ताजगी और निर्मलता के गौरव से पूर्ण यह एक प्रगतिशील धर्म के रूप में प्रतिष्ठित है। इसकी चिंतन-पद्धति जहाँ एक ओर क्रान्तिपूर्ण, सहिष्णु तथा वैज्ञानिक है, वहीं दूसरी ओर इसकी विचारधारा संतप्त मानवता को शांतिपथ पर लाने में समर्थ है। इसका एकमात्र प्रमाण इसके द्वारा अपनाए गए सिद्धांत एवं व्यवहार के बीच सामंजस्य की स्थापना है। 'रत्नत्रय' का विश्लेषण, व्यापकता, अनुज्ञापकता एवं सिद्धि इसके मूल आधार हैं। दर्शन के रूप में इसकी व्यापकता तथा आचरण के रूप में परिशुद्धता जगत् प्रसिद्ध है। धर्म अथवा धारण करने की कला की उत्कृष्टता इसका आदर्श है। साथ ही विचार एवं आचरण दोनों में इसकी उदारता अभीष्ट एवं स्वयंसिद्ध है। इसके दार्शनिक विचार जितने तथ्यात्मक हैं, धर्माचरण भी उतने ही कठोर, किन्तु यथार्थ हैं। इसकी दार्शनिक, आचारमीमांसीय एवं धार्मिक दृष्टि उदारवादी है और किसी भी धर्म-दर्शन के सिद्धांत एवं व्यवहार में यदि एकरूपता हो, सामंजस्य हो और धर्म-दर्शन धार्मिक कार्यों को प्रगतिशील विचारों के अनुरूप चलने का संदेश देता हो, अनन्य 'कनसर्न फॉर अदर्स' के भाव को बढ़ावा देता हो तो वैसे धर्म-दर्शन के नींव को ठोस उदारवादी दृष्टिकोण पर आधारित मान लेने में कहीं भी कोई बाधा न तो विचार के क्षेत्र में और न ही व्यवहार के क्षेत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य जैनों के दार्शनिक विचारों, यथा- ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा, आचारमीमांसा एवं धर्म-दर्शन के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्षों की विवेचना कर यह स्थापित करना है कि जैन धर्म-दर्शन उदारवादी दृष्टि को सर्वत्र बढ़ावा देता है। उदारवादी ज्ञानमीमांसा - जैनों की ज्ञानमीमांसा जहाँ अत्यन्त विस्तृत है वहीं इसमें ज्ञान की प्रक्रिया के विभिन्न रूपों का सूक्ष्म विश्लेषण भी देखने को मिलता है। अन्य भारतीय दर्शनों की ज्ञानमीमांसा की तरह ही इसकी ज्ञानमीमांसा भी अपने क्रमिक विकास और अंतिम निर्धारण को रूपायित करती है। इस क्रम में जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि आत्मा का सारतत्त्व चेतना है जिसका मूल स्वरूप सर्वज्ञता है, जिसे दूरस्थ एवं समीपस्थ तथा भूत एवं भविष्य प्रत्येक वस्तुओं का ज्ञान होता है, किन्तु कर्म के प्रभाव से, कर्म के द्वारा आक्रांत होने से इसका ज्ञान आकुंचित एवं सीमित हो जाता है। अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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