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________________ जैन दर्शन में जीव का स्वरूप : ५७ जीव प्रत्येक शरीर में भिन्न है-आचार्य शंकर की मान्यता है कि आत्मा एक है। माया या भ्रम के कारण वह अनेक रूपों में दिखाई देती है। लेकिन प्रश्न उठता है कि यदि आत्मा एक है तो फिर प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव अलग-अलग होता है। कोई रोता है तो कोई हँसता है। यदि आत्मा एक होती तो एक के रोने पर सभी को रोना चाहिए था। किन्तु ऐसा नहीं होता है। इससे यह स्पष्ट होता है आत्मा एक नहीं बल्कि अनेक है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा, जैन दर्शन आदि आत्मा के अनेकत्व में विश्वास करते हैं। जैन मान्यतानुसार आत्मा अपरिमित तथा असीम है लेकिन प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न है। पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर सिद्धों तक सभी की अलग-अलग आत्माएँ हैं। जैन दर्शन की यह प्रसिद्ध मान्यता है कि एक शरीर में अनेक आत्मा रह सकती हैं लेकिन एक आत्मा एक से अधिक शरीर में नहीं रह सकती है। यदि एक आत्मा की सत्ता को मानते हैं तो सुख, दुःख, बन्धन, मोक्ष आदि की व्यवस्था ही समाप्त हो जायेगी। एक ही आत्मा एक ही समय में सुखी और दुःखी या बद्ध और मुक्त दोनों नहीं हो सकती। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा एक नहीं अनेक है। जीव और ज्ञान में भिन्नाभिन्न सम्बन्ध है- जीव और ज्ञान भिन्न तथा कथंचित् अभिन्न है। ज्ञान जीव का गुण है। जीव और ज्ञान कथंचित् भिन्न इस दृष्टि से हैं कि जीव गुणी है और ज्ञान गुण। जीव लक्ष्य है और ज्ञान लक्षण। जीव और ज्ञान का यह विभेद व्यवहारनय की अपेक्षा से किया गया है। दोनों अभिन्न इस दृष्टि से हैं कि ज्ञान जीव का स्वभाव है। निश्चयनय की अपेक्षा से जो ज्ञान है वही जीव है और जो जीव है वही ज्ञान है। जीव और ज्ञान को सर्वथा न तो अभिन्न माना जा सकता है और न ही सर्वथा भिन्न माना जा सकता है। यदि हम उसे सर्वथा अभिन्न मानते हैं तो फिर हमें ज्ञान और सुख-दुःख आदि गुणों में अन्तर कर पाना मुश्किल हो जायेगा और यदि सर्वथा भिन्न मानते हैं तो ज्ञान आत्मा का निश्चयात्मक स्वभाव होने से वहाँ जीव का अभाव हो जायेगा और ज्ञान आदि के निराश्रय होने से ज्ञान की सत्ता नहीं रहेगी। इस प्रकार जीव व ज्ञान कथंचित् अभिन्न तथा कथंचित् भिन्न है। जीव के भेद मुख्य रूप से जीव के दो भेद हैं - १. संसारी, २. सिद्धर १. संसारी - जो जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं, वे सभी जीव संसारी कहलाते हैं। 'संसरणं संसार:' के आधार पर जो चतुर्गतिक नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों में संसरण करते हैं, संसारी जीव हैं। ये जीव कर्मबद्ध होने से पुनः-पुनः जन्म-मरण कर अनेक योनियों में अनेक बार पैदा होते रहते हैं। जब तक जीव कर्ममुक्त न हो जाये तब तक यह क्रम चलता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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