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________________ ५८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८ २.सिद्ध - जीव की विशुद्धतम अवस्था का नाम है-सिद्ध। जन्म-मरण की परम्परा से निवृत्त ये जीव लोक के एक देश में अवस्थित रहते हैं। ऐसे जीव अरूपी, सघन एवं ज्ञान-दर्शन में सतत् उपयुक्त होते हुए वैसे शाश्वत सुखों में तल्लीन रहते हैं, जो संसार में रहने वाला किसी भी जीव को प्राप्त नहीं होते। ज्ञान-दर्शन में सतत् उपयुक्त, संसार समुद्र से निस्तीर्ण और सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त सिद्ध जीव ही होते हैं।१४ संसारी जीवों के भेद - संसारी जीवों के मुख्यरूपेण दो भेद किये गये हैं - १. त्रस, २. स्थावर।१५ सभी संसारी प्राणियों का समावेश संक्षिप्त में इन दोनों प्रकारों मे समाहित है। १. त्रस जीव - वे जीव जो अपने हित की प्रवृत्ति एवं अहित की निवृत्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन करते हैं, त्रस जीव कहलाते हैं। इन्द्रियां पांच हैं। उनमें से दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पांच इन्द्रिय जीवों का समावेश त्रस कायिक जीवों में किया गया है। इस श्रेणी में चारों गतियों के जीव समाहित हैं। २. स्थावर - त्रस जीवों के विपरीत ये जीव चैतन्यगण से युक्त होने पर भी अविकसित चेतना शक्ति के कारण हित की प्रवृत्ति एवं अहित की निवृत्ति के लिए गमनागमन नहीं कर सकते। जिसमें स्वभावतः प्रवृत्ति होती रहती है, वे जीव स्थावर कहलाते हैं। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजसकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक आदि जीव इसके अन्तर्गत आते हैं। अपने-अपने शरीर की पहचान से ही आगमों में इनका उल्लेख उपलब्ध होता है। स्थावर जीवों के दो प्रकार हैं - १. सूक्ष्म, २. बादर। सूक्ष्म स्थावर जीवों का भण्डार पूरे लोक में खचाखच भरा है, लेकिन आँखों से दृश्य नहीं है। बादर जीवों का समूह आँखों से देखा जाता है। ये जीव लोक के एकांश में विद्यमान हैं। उपयोग एवं उदयजन्य अवस्था जैन दर्शन में जीव के स्वरूप के रूप में प्रख्यात है। कषायजन्य अवस्था में जीव औदयिक भाव में कार्यकारी होता है। क्षय, उपशम और क्षयोपशम जन्य जीव की अवस्था क्रमशः उज्ज्वलतम, उज्ज्वलतर एवं उज्ज्वल होती है। सांसारिक अवस्था में जीव और शरीर का सम्बन्ध क्षीरनीरवत्, अग्निलोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है। जीव के दस परिणामों मे वर्ण-गन्धादि पौदगलिक गुणों को भी गिनाया जाता है जब जीव कर्ममुक्त बन विशुद्ध बन जाता है, तब अमूर्त कहलाता है, उसका पुनः अवतरण इस संसार में नहीं होता। जैन-दर्शन यद्यपि जीव या आत्मतत्त्व की अवधारणाओं को अपने ढंग से प्रस्तुत करता है फिर भी कुछ आलोचक इस तरह की आपत्ति उठाते हैं कि इनका अध्यात्मवादी दृष्टिकोण सीमित और दोषपूर्ण है, क्योंकि ये पुद्गल तथा अनात्मवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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