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________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८ जीव कर्ता है- जीव में कर्त्तृत्व शक्ति विद्यमान है। जैन दर्शन जीव को सांख्य की भाँति कर्ता और अभोक्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि जीव की कर्तृत्वशक्ति दृश्य है। यद्यपि कर्तृत्व के बिना कोई भी द्रव्य द्रव्य नहीं हो सकता, फिर भी जीव को 'कर्ता' कहने के दो कारण मुख्य रूप से निमित्त बने हैं- सर्वप्रथम जीव की स्वतंत्र सत्ता मानकर दार्शनिकों ने उसे अकर्ता कहा है उनकी इस मान्यता का निषेध करने के लिए और दूसरी अपनी संसारिक अवस्था में जीव कर्ता ही है। इस विधान की पुष्टि पंचाध्यायी से होती है। ५६ न्याय- - वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त की भाँति जैन दर्शन भी आत्मा को कर्ता मानता है। आत्मा को कर्ता कहने से तात्पर्य है कि वह परिणमनशील है।' जिस समय हम जीव को परिणामी मान लेते हैं उसी समय वह कर्ता भी सिद्ध हो जाता है। जीव के साथ कुछ परिवर्तन देखें जाते हैं, जैसे- वह कभी गाता है, कभी रोता है, कभी बैठता है, कभी सोता है। यदि जीव यह सब नहीं करता है तो कौन करता है। हम जानते हैं कि जैन दर्शन नय शैली का प्रतिपादक है। नय शैली से उसने आत्मा को कर्ता बतलाते हुए कहा है कि व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा द्रव्य-कर्म, नो-कर्म एवं घट-पट आदि पदार्थों का कर्ता है और निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा भाव-कर्म का कर्ता है। प्रवचनसार में कहा गया है कि आत्मा अपने भाव कर्मों का कर्ता होने के कारण उपचार से द्रव्य कर्म का कर्ता कहलाता है। जिस प्रकार लोकरूढ़ि से कुम्भकार घड़े का कर्ता व भोक्ता माना जाता है उसी प्रकार रूढ़िवश आत्मा कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है। " जीव स्वदेहपरिमाण है- जैन दर्शन के अनुसार जीव अपने-अपने शरीर के अनुसार संकोच तथा विस्तार करता है । इसलिए स्वदेहपरिमाण कहा गया है। अन्य दार्शनिकों के अनुसार जीव शरीर के किसी एक भाग में ही होता है, लेकिन व्यवहार में ऐसा दिखाई नहीं देता । इसीलिए चींटी के शरीर का जीव छोटा और हाथी के शरीर का जीव विस्तार अवस्था में दृश्य है । निष्कर्षतः जीव शरीर प्रमाण है। विकास में तारतम्य होने के कारण भिन्न-भिन्न होते हुए भी चैतन्यमय असंख्य प्रदेशात्मक स्वरूप की दृष्टि से एक ही हैं। जीव भोक्ता है- जीव ही कर्म करता है और उसका भोग भी करता है। यह सत्य है कि कर्ता ही कर्मफल का भोग करता है। जीव अपनी अच्छी या बुरी प्रवृत्ति के द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को निरन्तर आकर्षित करता है, उन्हीं आकर्षित कर्मों को एक समय बाद भोगता है। यह जीव की असाधारण योग्यता है - भोग और उपभोग ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525065
Book TitleSramana 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey, Vijay Kumar
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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